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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १५५ से हानि के उदाहरण इस विषय को हृदयंगम करने की दृष्टि के प्रस्तुत किये हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी चित्त की अस्थिरता से बहुत बड़ी हानि और चित्त की स्थिरता से अपार शक्ति प्राप्त होती है। लाग्रथिम (लघुगणक) के सिद्धान्त की खोज करने में नेपियर को बीस वर्य तक कठिन परिश्रम करना पड़ा था। उसने लिखा है कि इस अवधि में उसने किसी अन्य विषय को मस्तिष्क में नहीं आने दिया। एक विषय पर ही बार-बार चित्त की स्थिरतापूर्वक उलट-पुलट कर विचार करने से ही तल्लीनता बनती है। उस चिन्तनकाल में सार्थक विचारों का एक पुंज मस्तिष्क में काम करने लग जाता है । यही है स्थिरचित्त का सुफल । प्रश्न होता है कि चित्त स्थिर कैसे हो ? क्योंकि यह तो अतीव चंचल और अस्थिर है। इसे वश करना अत्यन्त कठिन है । चित्त एक धारा में बहना नहीं चाहता । तथागत बुद्ध ने भी चित्त को नदी की उपमा देकर बताया है-- 'चित्तनदी उभयतो वाहिनी, वहति पुण्याय, वहति पापा य च' चित्त नदी दोनों धाराओं में बहती है, कभी वह पुण्य की धारा में बहती है, कभी पाप की धारा में। हाँ, तो चंचल चित्त को स्थिर रखने के लिए बार-बार अभ्यास करना और वैराग्य को जीवन में प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। चित्त की स्थिरता के फलीभूत होने में काल की सीमा है। किन्तु आज अभ्यास प्रारम्भ किया और कल ही फल मिल जाए, यह उसी तरह असंभव है, जिस तरह एक किसान को आज बीज बोते ही फल मिलना असम्भव है। पहले बीज अंकुरित होगा, फिर पौधा बनेगा, फिर फूल और फल लगेंगे । यही बात चित्त की स्थिरता के सम्बन्ध में समझिए । संभिन्नचित्त का सातवाँ अर्थ : असंतुलित चित्त चित्त का असंतुलित होना भी संभिन्नचित्त है । चित्त जब असंतुलित होता है तो मनुष्य हर्ष-शोक, शीत-उष्ण, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में उसे अपने काबू में नहीं रख पाता । जो सुख में अत्यन्त प्रसन्न होता है, वह दुःख में उससे भी अधिक दुःखी होता है। अनुकूल परिस्थितियों में जो खुशी से पागल हो उठता है, वह प्रतिकूल परिस्थितियों में उसी अनुपात में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप उसमें अत्यन्त प्रसन्न होकर सन्तुलन खो बैठे। दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में बहुत प्रसन्न न हुआ जाए। चित्त-सन्तुलनपूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी होगा। मनोनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर साधारण भाव से उनका स्वागत करने वाला ही प्रतिकूल परिस्थिति में घबराता नहीं। हर्ष के समय जो चित्त का सन्तुलन बनाए रखता है, वह विषाद के समय भी संतुलित रहता है। दुःख-सुख में समान भाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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