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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १५७ ' जयकर तिपाई पर पाँच दिन तक निरन्तर बिना हिले खड़ा रहा । न उसने कुछ खाया और न पानी पिया। उसकी इस तपस्या और लोकापवाद के भय से अध्यापक का आसन हिला और वह संस्कृत पढ़ाने पर मजबूर हुआ। जयकर का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लेने के साथ उसने वैदिक विभाग में प्रवेश माँगा। इस बार अध्यापकों ने शपथ खाकर इन्कार किया कि “शूद्र संस्कृत का लौकिक साहित्य तो पढ़ सकता है, वैदिक साहित्य कदापि नहीं ।” जयकर का उद्देश्य ज्ञानार्जन का था, व्यर्थ विग्रह नहीं । वह सत्याग्रही था, दुराग्रही नहीं। अतः उसने वैदिक कक्षा में प्रवेश के लिए हठ नहीं किया । सतत अध्ययन करके उसने संस्कृत की स्नातकोत्तर परीक्षा उच्च श्रेणी से उत्तीर्ण की और अपने ढंग से वेद वेदांगों का गहन मन्थन करके वेदान्त के एक बहुत गवेषणापूर्ण ग्रन्थ की रचना की। किन्तु इस ऊँचाई तक जयकर बिना विघ्नबाधाओं के यों ही सरलतापूर्वक नहीं पहुँच गया। ___ जयकर के संसार में आने से पूर्व उसके माता-पिता को निर्धनता देकर नियति ने प्रारम्भिक अवरोध तो पहले से ही कर रखा था। दुर्भाग्य से पिताजी का अवसान हुआ तब जयकर मां की गोद में ही पल रहा था। जयकर को लेकर उसकी मां अपने पिता के पास चली गई। वहीं नाना ने उसका पालन-पोषण किया । नाना के कोई पुत्र न होने से जयकर को दिवंगत नाना की सम्पत्ति मिल गई जो थोड़ी-सी थी। जयकर यदि अवरोधों और विरोधों के बीच अपने चित्त का संतुलन खो बैठता और सतत अपने अध्ययन को न बढ़ाता तो इतना सुयोग्य विद्वान कैसे बनता ? इतने तिरस्कारों और अपमानों के बीच भी जयकर ने अपनी संस्कृति न छोड़ी। आगे चलकर जयकर अच्छे वकील बने । इंगलैण्ड में जाकर वकालत करने लगे। इतनी अपार आय और बड़े-बड़े विलासी एवं व्यसनी मित्रों के बीच रहते हुए भी जयकर ने कभी मद्य और मांस का सेवन न किया, यहाँ तक कि सिगरेट भी नहीं पी। उनका चरित्र उज्ज्वल एवं निष्कलंक रहा। यह है संतुलितचित्त का चमत्कार, जो दुर्व्यसनों से दूर रहने से प्राप्त होता है। चित्त की संतुलित स्थिति पर शारीरिक स्वास्थ्य निर्भर है। देह का कोई भी रोग इतना कष्टकर नहीं होता, जितना चित्त का उद्वेग । चित्त को स्वच्छ, शान्त एवं संतुलित रखने से आत्मिक प्रफुल्लता प्राप्त होती है, जो सबसे बड़ी 'श्री' है, संजीवनी बूटी है । चित्त के संतुलन से मानसिक शान्ति तो प्राप्त होती ही है, पाचन क्रिया भी ठीक रहती है, ठीक भूख लगती है । उद्विग्न अवस्था में भूख बिलकुल मर जाती है। पेट भारी रहता है, सिर दर्द करता है, चित्त पर बोझ होता है । चित्त भसंतुलित होते ही कोई न कोई शारीरिक व्याधि शुरू हो जाती है । चित्त की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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