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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १४६ एक गृहस्थ है, अव्यवस्थित चित्त के कारण सोचता है-'कल न जाने क्या होगा ? नौकरी मिलेगी या नहीं ? बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे या अनुत्तीर्ण ? लड़की के लिए योग्य वर कहाँ मिलेगा ? मकान न जाने कब तक बनकर पूरा होगा ? कहीं वर्षा न हो जाए, हो गई तो पकी हुई फसल खराब हो जाएगी।' ये और इस प्रकार की सैकड़ों अवांछनीय एवं निराशाजनक कल्पनाएँ करके व्यक्ति घबराहट पैदा कर लेता है। व्यवस्थितचित्त से अगर वह यह सोचे कि जो कुछ होना है, वह एक व्यवस्थित क्रम से ही होगा, फिर घबराने, व्यर्थ विलाप करने अथवा भविष्य की चिन्ता में पड़ने से क्या लाभ ? किन्तु अव्यवस्थितचित्त वाला व्यक्ति इस प्रकार की ऊलजलूल कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाकर जीवन को अस्त-व्यस्त बना लेता है, व्यर्थ की कठिनाई में अपने आपको पीड़ित अनुभव करता रहता है । समय पर प्रायः सभी के कार्य पूरे हो जाते हैं। इसलिए व्यक्ति को प्रयास जारी रखना चाहिए, परन्तु चित्त में व्यर्थ की घबराहट पैदा करके कार्य को बोझिल बना देना उचित नहीं। आपका चित्त भारमुक्त होगा तो आप अधिक रुचि और जागृति के साथ व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक सभी कार्य कर सकेंगे और वे कार्य श्रीयुक्त (शोभास्पद) बनेंगे। घबराने वाले व्यक्ति फूहड़ माने जाते हैं। वे श्रम भी करते हैं और कार्य भी बिगाड़ते हैं, या कार्य सही नहीं होता । अगर कार्य सही है तो चित्त पर घबराहट का बोझ न डालिए। आप उसके फलाफल की परवाह किये बिना करते जाइए। कई लोगों को अवांछनीय कल्पना करने के कारण चित्त में समस्या का यथार्थ समाधान या हल नहीं मिल पाता। चित्त की अव्यवस्थितता के कारण ऐसे व्यक्ति के विचार जब लड़खड़ा जाते हैं, तब दिनचर्या और कार्यक्रम सभी कुछ गड़बड़ा जाते हैं, और उलटे परिणाम निकलते हैं। सवारी पाने की जल्दी में सामान पीछे छूट जाता है, स्वागत की तैयारी में कई महिलाओं को ध्यान ही नहीं रहता, उधर भोजन जल जाता है। कई बार इसी झोंक में वे इतनी बेभान हो जाती हैं कि चूल्हे या स्टोव की आग से उनके कपड़े जल जाते हैं, या घर में आग लग जाती है। इसलिए नियम यह है कि प्रत्येक कार्य एक व्यवस्था के साथ हो । एक कार्य जब चल रहा है तो बीच में दूसरे विचार को चित्त में स्थान देने की क्या आवश्यकता है ? एक बार में एक ही विचार और एक ही कार्य शोभास्पद होता है । हड़बड़ाने से सारा ही खेल चौपट हो सकता है। चित्त में उदासी, खिन्नता या अप्रसन्नता के वास्तविक कारण बहुत ही कम होते हैं, अधिकांश कारण घबराहट से उत्पन्न भय ही होता है और मनुष्य जानेअनजाने इससे अपनी बहुत सी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों को बर्बाद करता रहता है। जिन्होंने जीवन में बड़ी-बड़ी सफलताएँ या विजयश्री पाई हैं, उन सबके चित्त सुव्यवस्थित रहे हैं, जिससे उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति क्रमबद्ध और सुचारु रही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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