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________________ १४८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कई बार अवांछित या व्यर्थ की कल्पनाएँ करने से चित्त अस्त-व्यस्त हो जाता है, वह किसी अभीष्ट कार्य को करने का विचार करता है, परन्तु दूसरे ही क्षण अनेक संशय, बहम और कल्पनाएँ आकर उस कार्य में रुकावट डाल देती हैं । अव्यवस्थितचित्त वाला व्यक्ति हृदय की संवेदनशीलता के कारण एक साथ अनेक कल्पनाएँ करता है । कभी धनवान बनने, कभी विद्वान् और कभी पहलवान होने के स्वप्न देखता है और इन लालच भरे सपनों के पीछे अंधी दौड़ लगाया करता है । वह अपने अव्यवस्थितचित्त के कारण प्रत्येक अवस्था में अपने आपको ठीक समझता है, मगर इन अनेक कामनाओं का वह समन्वय नहीं कर पाता । दूकान, अभी रेल, अभी एक ही समय में कोई वक्ता एवं पहलवान दोनों बन सके, यह असम्भव है । एक बार में एक ही क्रिया को व्यक्ति अधिक उत्तमता और सफलता के साथ पूरा कर सकता है। अभी खाना, अभी पानी, अभी घर, अभी मोटर सभी बातें एक साथ नहीं हो सकती । इन्हें क्रमिकरूप से पूरा करने से ही कोई उचित व्यवस्था बन पाती है । पर इनका क्रम बिठाने की क्षमता अव्यवस्थित चित्त वाले व्यक्ति में नहीं होती । इसलिए वह दुविधाओं और उलझनों में पड़ा रहता है। एक भी कार्य को व्यवस्थित रूप से कर नहीं पाता । अव्यवस्थितचित्त वाला व्यक्ति इसी कारण अनेक कार्य सामने होने पर घबरा जाता है, वह क्रम नहीं जमा पता, व्यवस्थित ढंग से नहीं चलता । इस प्रकार अव्यवस्थितचित्त के कारण उसकी सभी प्रवृत्तियाँ श्रीहीन और असफल होती हैं । चित्त जब अव्यवस्थित होता है तो उस पर बोझ - सा पड़ जाता है । अव्यवस्थित चित्त के कुछ नमूने देखिये— एक व्यक्ति स्टेशन की ओर जा रहा है । चित्त में धुकुर- पुकुर चल रही है कि "ट्रेन मिलेगी या नहीं ? कहीं मेरे जाने से पहले ही ट्रेन न छूट जाए ?" इस प्रकार चित्त की अव्यवस्था से सारा काम बिगड़ जाता है । कार्य तो होता है, पर श्रीहीन होता है । यदि उस व्यक्ति का चित्त यह सोच ले – 'अगर स्टेशन पर पहुँचने से पूर्व ही गाड़ी छूट गई तो क्या होगा ? यही न, कि जहाँ जाना वहाँ वह देर से पहुँचेगा । वह जहाँ जा रहा है, उसका भी तो यही लक्ष्य होगा कि वह कार्य व्यवस्थित ढंग से पूरा हो, प्रसन्नता मिले । पर वह चित्त को अव्यवस्थित बनाकर अगली प्रसन्नता के लिए अब की प्रसन्नता को खो देता है । पहले से ही चित्त को व्यवस्थित रखे तो अलमस्त होकर प्रसन्नतापूर्वक कार्य निपटाएगा, यही तो होगा कि कार्य कुछ विलम्ब से होगा । अपना क्रम या अपनी व्यवस्थाएँ ठीक रखे तो चित्त में घबराहट या अव्यवस्थितता नहीं आएगी । एक विद्यार्थी पुस्तक लिए बैठा है । पर चित्त की अव्यवस्थितता के कारण फेल हो जाने की घबराहट सता रही है । फलतः पेज तो खुला है, पर चित्त और घूम रहा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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