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________________ सभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १४७ विचारपूर्वक कुछ नहीं करता । यही अव्यवस्थित चित्त का लक्षण है । एक युवक से पूछा गया - "जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है ?" उसने उत्तर दिया- "यह तो मैं नहीं जानता, किन्तु सच्चे और कठोर परिश्रम में मुझे विश्वास है । मैं अपने समस्त जीवन भर सुबह से शाम तक जमीन खोदता ही रहूँगा । मैं जानता हूँ कि उसमें कुछ भी - सोना, चाँदी, और कुछ नहीं तो, लोहा अवश्य मिलेगा ।" यह व्यवस्थित चित्त का लक्षण नहीं है | क्या सोने-चाँदी के लिए कोई अपनी तमाम जमीन खोद डालेगा ? जो लोग शून्य चित्त से 'कुछ भी तो मिलेगा' इस विचार से काम करते हैं, वे भी अभीष्ट सफलता या विजयश्री से वंचित रहते हैं । अगर किसी विशिष्ट वस्तु का लक्ष्य न बनाकर काम किया जाता है, तो उसका परिणाम भी जैसा तैसा ही होगा, उसका कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं आ सकता । फूलों के आस-पास अनेक जीवजन्तु घूमते मक्खी ही प्राप्त करती है, क्योंकि वह एक निश्चित है । कई लोग जिन्दगी भर कठोर परिश्रम पीछे कोई व्यवस्थित विचार नहीं होता, वे करते, इसलिए वे इतना सब कुछ करके भी असफल और दरिद्र रहते हैं । रहते हैं, परन्तु शहद तो मधुविचार से फूलों के पास मंडराती किया करते हैं, किन्तु उनके परिश्रम के भविष्य के बारे में कोई निश्चय भी नहीं पर भी जब पानी । एक किसान ने कुआ खोदना शुरू किया । दस हाथ खोदने नहीं निकला तो वह निराश हो गया। दूसरी जगह खोदने लगा दूसरी जगह भी जब दस हाथ खोदने पर पानी न निकला तो तीसरी जगह खोदने लगा । यों उसने ५-७ स्थानों पर दस-बारह हाथ खोदा, पर कहीं पानी नहीं मिला, तब हताश होकर घर लौट आया । उसने अपनी व्यथाकथा एक बुद्धिमान व्यक्ति को सुनाई । उसने उसे समझाते हुए कहा – “तुमने पाँच-सात स्थानों पर दस-दस हाथ खोदा, यदि तुम अलग-अलग जगह न खोदकर एक ही जगह ५०-६० हाथ खोदते तो अवश्य ही तुम्हें पानी मिल जाता । तुमने धैर्य रखकर व्यवस्थित और स्थिरचित्त से काम नहीं किया, बल्कि थोड़ा-थोड़ा खोदकर निर्णय बदल लिया । अब तुम व्यवस्थित ढंग से चित् की स्थिरता एवं एकाग्रतापूर्वक एक ही स्थान पर खोदो और जब तक पानी न निकले, तब तक खोदते ही रहो ।” उसने इस बार दृढ़ निश्चयपूर्वक व्यवस्थित ढंग से फिर खोदना शुरू किया । लगभग २० हाथ खोदते ही उसे पानी मिल गया । बन्धुओ ! आप समझ गये होंगे कि अव्यवस्थितचित्त से कार्य करने में कितनी हानि है और व्यवस्थितचित्त से कितना लाभ है ? इसीलिए नीतिज्ञों की यह प्रेरणा कितनी लाभदायक है 'अव्यवस्थितचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रियाः ' जैसे हाथी नदी में स्नान करने के बाद पुनः धूल में लोट जाता है, इसलिए उसकी स्नानक्रिया व्यर्थ हो जाती है, वैसे ही जिनका चित्त अव्यवस्थित है जमा हुआ नहीं है, एक ध्येय में एकाग्र नहीं है, उनकी क्रियाएँ भी व्यर्थ हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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