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________________ १४६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ गाँव के लोगों को पता लगा तो महात्मा समझकर झुंड के झुंड दर्शन करने आने लगे, प्रसाद भी चढ़ा जाते । पर वह न तो किसी की ओर देखता, न प्रसाद ही उदर में डालता । भंगिन ने सोचा कहीं कुछ और हो गया तो और मेरे जी को परेशानी होगी। अतः वह घर चलने का आग्रह करने लगी। पर वह न तो भंगिन की तरफ देखता, न बोलता । अब उसे राजकुमारी की भी कोई स्मृति या आकर्षण नहीं रहा। बस, एक ही धुन भगवान की लग गई। आखिर राजा-रानी और राजकुमारी के पास भी यह खबर पहुँची । भंगिन ने भी राजकुमारी से कहा । दूसरे दिन राजा, रानी और राजकुमारी वटवृक्ष के नीचे योगी की तरह समाधिस्थ वैठे हुए भंगी के पास पहुँचे, दर्शन किये । पर वह तो आँख उठाकर भी नहीं देखता था। तब राजा-रानी तथा अन्य लोगों के इधर-उधर हो जाने पर राजकुमारी ने उसके निकट निवेदन किया- "जिसको तुम पहले याद कर रहे थे, वह मैं राजकुमारी अपने वायदे के अनुसार आ गई हूँ।" पर भंगी तो अब प्रभु में इतना तल्लीन हो चुका था कि वह अन्यत्र बिलकुल झांकता या कुछ कहता न था । जब राजकुमारी ने उसे झकझोरकर कहा-"चलो, न अब ! मैं आ गई हूँ।" तब उसने धीरे से कहा-"अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। जो चाहिए था, वह (भगवान) मुझे मिल गया है।" बन्धुओ ! भंगी के चित्त की एकाग्रता पहले निम्नकोटि के लक्ष्य में थी, लेकिन बाद में वह उच्चकोटि के लक्ष्य-भगवान में हो गई, तब उसके सामने सभी सांसारिक आकर्षण समाप्त हो गये । इस प्रकार की चित्त की एकाग्रता से तीन लोक की सम्पदा के तुल्य प्रभु मिल जाते हैं, शुद्ध आत्मा से मिलन हो जाता है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २६) में आध्यात्मिक क्षेत्र में चित्त की एकाग्रता से लाभ बताया है 'एगग्गचित्त णं जीवे मणगुप्त संजमाराहए भवइ' 'एकाग्रचित्त से जीव मनोगुप्ति का और संयम का आराधक हो जाता है।' ___ जिसके चित्त में एकाग्रता नहीं होती उसे कहीं भी सफलता नहीं मिलती। अनेकाग्रचित्त व्यक्ति को सफलता, विजयश्री या सिद्धि मिलनी कठिन है। एकाग्रता से सम्बन्धित गुण है, संलग्नता। उसका अर्थ है, जिस लक्ष्य में चित्त को एकाग्र किया है, उसमें उसे लगाये रखे। संलग्नता सतत लगे रहने का नाम है। जिसका चित्त निश्चित ध्येय या कार्य में संलग्न नहीं रहता उस संभिन्नचित्त व्यक्ति से सिद्धि, विजयश्री या सफलता कोसों दूर रहती है। संभिन्नचित्त का पांचवां अर्थ : अव्यवस्थित चित्त . एक व्यक्ति है, वह किसी लक्ष्य को पाने का इच्छुक है, परन्तु वह व्यवस्थित रूप से अपने चित्त को उसमें नहीं लगाता, वह कुछ न कुछ करता रहता है, पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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