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________________ १५० आनन्द प्रवचन : भाग : जिनके चित्त में विशृंखलता होती है उनके पास सदैव समय की कमी की शिकायत रहती है। फिर भी अन्त तक वे थक-पचकर सिर्फ एक-दो कार्य ही कर पाते हैं। परन्तु जिन लोगों ने व्यवस्थितचित्त से विधिपूर्वक चिन्ताविमुक्त होकर धैर्य से कार्य प्रारम्भ किये, उन्होंने सैकड़ों कार्य ठीक किए, सफलताएँ अजित की, श्रीसम्पन्नता भी प्राप्त की, जो सामान्य व्यक्ति के लिए चमत्कार सी लग सकती हैं अतः श्रीसम्पन्नता चाहने वाले व्यक्ति के लिए उचित है कि वह चित्त से उलझन, भय, घबराहट आदि बिलकुल निकाल फेंके और शान्ति एवं स्थिरचित्त से. आत्मविश्वासपूर्वक समस्या या उलझन को सुलझाने का प्रयत्न करे। __ अव्यवस्थितचित्त किसी कार्य में श्री को पास भी न फटकने देगा। अव्यवस्थितचित्तता एक ही प्रकार की नहीं है। दुर्बल चित्त वाले व्यक्ति के अनेक रूप होते हैं, और वे सब अव्यवस्थित होते हैं। एक व्यक्ति मानसिक रोगों से पीड़ित था। उसके चित्त में मौत और विद्रोह के अनेक विचार सतत विद्रोह मचाए रहते थे। उसे हर समय कुछ न कुछ चिन्ता, शंका और भीति बनी हुई रहती थी। उसे अपने घर, परिवार एवं व्यापार में हानि का डर लगा रहता था। इस कारण उसे नींद नहीं आती थी, उसकी स्मरणशक्ति भी क्षीण हो गई थी, किसी काम में चित्त नहीं लगता था। चित्त की शान्ति के लिए वह कई गण्डे-ताबीज भी करा चुका, पर कोई लाभ नहीं हुआ। उसका चित्त जीवन से ऊब गया। एक सरकारी ऑफिसर की पदोन्नति नहीं हो रही थी। उससे कम योग्यता वाले व्यक्ति सिफारिश और रिश्वत के बल पर चढ़ गए। वह जहाँ का तहाँ रहा । इस अत्याचार का उसके चित्त पर इतना आघात लगा कि नौ वर्षों तक वह अनिद्रा, चिन्ता और शोक से दग्ध रहा, उसका चित्त काम में नहीं लगता था। चारों ओर अन्धेरा ही अन्धेरा उसके सामने था । ये और इस प्रकार के कई दुर्बल चित्त वाले लोग अपने चित्त को अव्यवस्थित बनाकर कष्ट पाते रहते हैं । न तो उन्हें कोई सफलता या विजयश्री मिलती है और न ही 'श्री'। मनुष्य का 'अहं' तनिक-सी बात से कुण्ठित हो जाता है। चित्त में उत्पन्न प्रत्येक दुर्भाव-क्रोध, निराशा, द्वन्द्व, अतृप्ति, आतुरता, कामावेग, विक्षोभ, उद्वेग, डर, अभिमान, अहंभाव एवं अपराधवृत्ति आदि धीरे-धीरे दबकर मानसिक रोग मा चित्तवृत्ति की विकृति के रूप में फूट निकलते हैं । उसका चित्त अव्यवस्थित हो जाता है । हर बात को वह शंकाशील और विपरीत दृष्टि से सोचने लगता है। इसी प्रकार कोई भी कार्य प्रारम्भ करने का विचार करते ही असफलता का भय चित्त में उठा करता है, जो व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति की शिथिल कर देता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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