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भिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २
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यों तो चित्त आँखों से दिखाई नहीं देता । इसलिए उसका रूठना भी नहीं दीखता, मगर विवेक की आँख से देखें तो वह रूठा हुआ दृष्टिगोचर होगा । रूठने वाले की पहचान है - साथ न देना, कहना न मानना, उच्छृंखल होकर उलटे ही चलना, सहयोग न देना, बल्कि नुकसान और तोड़फोड़ ही अधिक करना । जब बच्चा रूठ जाता है तो घर का सामान तोड़ता - फोड़ता है, अपने हाथ पैर पछाड़ता है, घर को नुकसान पहुचाता है, स्वयं कष्ट पाता है । नौकर रूठ जाता है जो वह काम नहीं करता, करता है तो ऐसे ढँग से करता है कि मालिक को और उलटा नुकसान पहुँचे ।
चित्त भी जब रूठ जाता है तो वह हमारे सत्कार्य एवं सद्विचार में सहयोग नहीं देता, उलटे उलटे काम करने लगता है । कुमार्गगामी होकर सफलता के साधन रूप सद्गुणों को तोड़ता - फोड़ता रहता है, और अपने घर ( अन्तर) में ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, छल, स्वार्थ आदि विकारों को घुसा देता है । आत्मा के पास बैठकर कभी विचार नहीं करता कि इस घर का बनाव- बिगाड़, हानि-लाभ किस में है ? यहाँ तक कि स्वाध्याय एवं सत्संग का भोजन लेना भी बन्द कर देता है । स्वयं निन्दा, तिरस्कार, दारिद्रय, शोक संताप एवं असफलता का भागी बनकर कष्ट पाता है, अपने मालिक को भी कष्ट में डाल देता है ।
अत: अच्छा तो यही है कि चित्त को अधिक समय तक रूठे और विरुद्ध, उच्छृंखल बने रहने देना नहीं चाहिए। उसे समझा-बुझाकर, मनाकर झटपट अपना साथी सहयोगी बना लेना चाहिए । अन्यथा रुष्ट, उच्छृंखल और विरोधी मन आपके जीवन की समस्त श्री (शोभा) को छिन्न-भिन्न और मटियामेट कर देगा ।
पर मैं देख रहा हूँ कि आप लोगों में से अधिकांश का चित्त अब भी रुष्ट और विरोधी बना हुआ है । अगर चित्त ने सहयोग दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती, जैसी आज है । व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवनों में आपकी उन्नति और सन्तुलितता हो गई होती । चित्त आपका प्राज्ञाधीन होता तो उसने शरीर को स्वस्थ और समर्थ रखने के लिए संयम बरता होता । लोभ, काम, मोह, अहंकार आदि के चक्कर में न पड़ा होता, बल्कि विषयों से स्वयं निःस्पृह या अनासक्त रहकर आत्मा की सेवा में इन्द्रियों को लगाता; पर उसने तो आत्मा की फजीहत कर दी, उसकी प्रभुता को भी समाप्त-सी कर दी । अगर चित्त ने आहारविहार में नियमितता रखी होती तो देह गुलाब के पुष्प की तरह खिली हुई और चेहरा प्रसन्न होता ।
चित्त रूठा बैठा रहा, उसने शरीर, इन्द्रियों, वातावरण, पार्श्ववर्ती जनसमुदाय आदि की गतिविधि पर कोई ध्यान नहीं दिया । फलतः शरीर रुग्ण हो गया, इन्द्रियाँ शिथिल और अशक्त हो गईं, आत्मा को भी अशान्ति और उद्विग्नता रही, वह किसी भी सत्कार्य में न लग सका । चित्त भी स्वयं मकान में रहने वाले किराये -
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