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________________ १३८ आनन्द प्रवचन : भाग अतः चित्त के दोषों को दूर करने का प्रयत्न करेंगे, तभी चित्त संभिन्न न रहकर आप का चित्त एकाग्र, अनुशासित, शान्त एवं स्वस्थ होगा। अतः आपके गुप्त चित्त में कोई प्रच्छन्न कसक, पीड़ा, व्यथा, दोष, ग्लानि आदि हो तो चित्त में रुके हुए उन दुष्ट विकारों को उसी तरह निकालकर फेंक दीजिये, जैसे आप अपने घर को झाडबुहार कर स्वच्छ करते समय कूड़े-करकट को निकालकर बाहर फैक देते हैं। एक बात और है जिसे रूठे या टूटे चित्त वाले को समझ लेना है। दुनिया में बुद्धिमान उसे समझा जाता है, जो रूठे हुए को मनाना और टूटे हुए को बनाना जानता हो । आप अपने कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, मकान आदि को कहीं टूट-फूट जाने पर एकदम फैक नहीं देते, उसकी मरम्मत करते-कराते हैं। सब कुछ नया ही नया हो, यह कैसे हो सकता है ? इस मामले में तो आप बड़े चतुर हैं। किन्तु चित्त यदि किसी कारणवश टूट रहा हो या टूटने की स्थिति में हो, उस समय क्या आप उसे सर्वथा फैक देंगे, उसकी उपेक्षा कर देंगे, क्या आप उससे होशियारी से काम नहीं लेंगे? उसे भी आप टूटने नहीं देंगे। उसकी मरम्मत करेंगे। जहाँ कहीं चित्त की दरारों को जोड़ने वाले मित्र, स्नेही, गुरुजन या बुद्धिमान होंगे, उनसे सम्पर्क करके आप उसे जोड़ेंगे। उसी प्रकार परिवार में भी कोई व्यक्ति किसी कारणवश रूठ जाए, उच्छुखल होकर विद्रोह करने लगे तो क्या उससे परिवार का मुखिया भी रूठ बैठेगा ? यों वह बात-बात में रूठने लगेगा तो परिवार चलाना भी कठिन हो जाएगा। परिवार में कभी पत्नी से अनबन हो जाती है, कभी बच्चों से कहासुनी हो जाती है, कभी भाई से मनमुटाव और कभी पड़ोसियों से चख-चख हो जाती है, अगर इस स्थिति को यों ही रहने दिया जाए या ऐंठ को कड़ी करते रहा जाए तो काम नहीं चलेगा। उलझनें बढ़ती ही जाएँगी, जिनके साथ रहना है, उनसे मधुर सम्बन्ध बनाए रखने में ही फायदा है। चित्त आपका निकट का सम्बन्धी है, आपके परिवार वालों, यहाँ तक कि शरीर और इन्द्रियों से अधिक समीप रहने वाला स्वजन है। चित्त की समझदारी और अनुकूलता-अधीनता से हमारे शरीर की अस्तव्यस्तता तथा सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक आदि सभी क्षेत्रों की उलझी हुई समस्याएँ मिनटों में सुलझ सकती है। प्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यकार गोल्डस्मिथ (Goldsmith) ने ठीक ही कहा है "A mind too vigorous and active serves only to consume the body to which it is joined, as the richest jewels are soonest found to wear their settings." - "चित्त अत्यन्त शक्तिशाली और कार्यक्षम है, पर आज वह शरीर के साथ जुड़ा होने पर भी सिर्फ उसे नष्ट करने की सेवा करता है, जैसे बहुमूल्य जवाहरात जहाँ पहनने के लिए जड़े जाते हैं वहीं वे टिक जाते हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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