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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १३७ से दूसरी ओर भागता रहता है। अभीष्ट शुद्धता है - उसकी स्वाभाविकता, प्रसन्नता। वह जब मिल जाती है तो यह सन्तुष्ट, स्थिर एवं शान्त हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है, न चंचल और न ही उच्छृखल-विरोधी। चित्त को जो स्ववश करना चाहता है, उसे चाहिए कि वह अभीष्ट शुद्धि की ओर गतिशील होने में उसे मदद दे। एक बार उसे अपने केन्द्रबिन्दु तक पहुँच जाने में सहायता करे जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर पिता द्वारा पाले-पोसे हुए सयाने पुत्र की तरह मनुष्य को सहायक एवं सुखदाता बन सके। चित्त में अस्वाभाविकता आना ही उसकी अशुद्धि है । जिसके कारण मनुष्य उसे वश में नहीं रख पाते । वासनाओं की तृप्ति या विषयोत्पत्ति को ही मनुष्य जब जीवन मान लेता है, तब उसमें अस्वाभाविकता आती है, जो कि अशुद्धि का कारण है। वासनाओं से परे सत्य, शिव और सुन्दर जीवन की अनुभूति कर लेने पर मनुष्य का चित्त शान्त, सन्तुष्ट एवं स्थिर हो जाता है। चित्तशुद्धि के लिए वस्तुओंसांसारिक, नश्वर एवं परिवर्तनशील वस्तुओं से निःसंग, निर्मोह एवं निरासक्त रहना आवश्यक है । असंगता (संयोग से विप्रमुक्ति) आ जाने पर मनुष्य के चित्त में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममत्व एवं अहंकार आदि वे विकृतियाँ नहीं रह पातीं, जो चित्त की अशद्धि या मल कही गई हैं। जब ये विकृतियाँ नहीं रहेगी, तब चित्त शुद्ध, शान्त एवं स्थिर रहेगा, जिससे एक शाश्वत, सात्त्विक, अनिर्वचनीय प्रसन्नता प्राप्त होती है, जो जीवन का लक्ष्य है। - श्रमण भगवान महावीर ने भी दूषित चित्त को व्यक्ति के लिए दुःखों की परम्परा बताया है पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म जं से पुणो होइ दुहं विवागे -उत्तराध्ययन सूत्र जिसका चित्त प्रदुष्ट, अशुद्ध. दूषित है, वह दुष्कर्मों का संचय करता है, और वे ही दुष्कर्म फल भोगने के समय उसके लिए दुःखरूप होते हैं। निष्कर्ष यह है कि जब तक आपका चित्त अशुद्ध एवं दोषयुक्त रहेगा, तब तक आपकी कोई भी क्रिया, यहाँ तक कि कोई भी जप, तप, स्वाध्याम, ध्यान आदि धर्मक्रिया शुद्ध नहीं होगी। भिन्नचित्त को कोई भी सफलता, सिद्धि या लक्ष्मी प्राप्त नहीं होगी। एक कवि बहुत ही सुन्दर उक्ति कहता हैमन' का कलुष अगर ज्यों का त्यों, लाख संवारो तन क्या होगा? दिन-दिन भारी अधिक गठरिया, छिन-छिन मैली अधिक चदरिया। पल-पल प्यास प्रबल होती है, रह-रह रिसती अधिक गगरिया ॥ आज न वल्गा अगर कसी तो, कल सौ. करो जतन क्या होगा ? १ 'युगगायन' से, २ वल्गा का अर्थ है---लगाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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