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________________ १३६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ करें ? हमारा चित्त नहीं मानता । भला चित्त का क्या दोष है ? चित्त तो आपका सहायकमात्र है, वह जिस वस्तु में आपकी रुचि देखता है, उसी ओर और वही कार्य किया करता है। दूसरा व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, वह स्वाद के लोभ में पड़कर अंटसंट नहीं खाता । वह आसन, प्राणायाम, व्यायाम आदि करता है, इसी प्रकार जप, तप, ध्यान, मौन, संयम आदि कियाएँ भी करता है। उसका चित्त उस विषय में सहायक बनता है । यों चित्त आपकी इच्छाएँ पूर्ण करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसे शत्रु नहीं मित्र समझना चाहिए। वयस्क मनुष्य के लिए प्रायः यह बात अज्ञात नहीं रह गई है कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? क्या करने में उसका कल्याण या अकल्याण है ? परन्तु कल्याणकारी कार्य करना चाहते हुए भी वह नहीं कर पाता, प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं, जो अमांगलिक एवं अकल्याणकारी होते हैं, वे न सामाजिक दृष्टि से लाभदायक होते हैं, न आर्थिक-धार्मिक दष्टि से भी। ऐसी स्थिति में उसे पश्चात्ताप होता है । वह मन ही मन रोता, खीजता और स्वयं को कोसता है। वह यह भी जानता है कि इस प्रकार के अवांछनीय कार्य उसे प्रगतिपथ पर, सुख-शान्ति, श्री एवं सुधी के महामार्ग पर नहीं बढ़ने देंगे, जिसके कारण उसका बहुमूल्य मानवजीवन यों ही नष्ट होकर वृथा चला जाएगा, उसे आत्मा के अभ्युदय एवं श्रेय का अवसर नहीं मिलेगा। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है, वह आत्मकल्याण का अधिकारी बने, मुक्तिलक्ष्मी प्राप्त करे, या स्वर्गश्री को उपलब्ध करे, मानवजीवन का सदुपयोग करे । किन्तु खेद है, चित्त की इसी संभिन्नता के कारण जो कि चित्तदोष के कारण होती है, वह अपने इस महान् उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता । चित्त की उच्छृखलता के कारण वह ऐसा नहीं कर पाता । अगर चित्त स्वाधीन एवं अनुशासित हो जाए तो वह निरुपद्रवी होकर सत्कर्मों और शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु बनता है। इसी कारण हर मनुष्य चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है, मगर स्वाधीन वह तभी हो सकता है, जब वह निर्दोष हो । सदोष या अशुद्धचित्त उपद्रवी होता है। वह विपरीतगामी होने से मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर लिये भागता रहता है । बहुधा लोग मान लेते हैं कि चित्त की चंचलता ही चित्तदोष है, जिसके कारण वे उसे वश नहीं कर पाते । परन्तु चित्त की चंचलता वास्तव में उसका दोष नहीं है, बल्कि चित्त की चंचलता उसकी विकलता है, छटपटाहट है, जो शुद्धि पाने की इच्छा एवं प्रयत्न से होती है । चित्त की चंचलता इस बात की द्योतक है कि वह अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए लालायित होकर वह भागा-भागा फिर रहा है। नैसर्गिक नियमानुसार चित्त स्वभावतः शुद्धि की ओर स्वतः गतिशील रहा करता है, लेकिन जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिलती है; तब तक वह एक ओर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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