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२८ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
___ आज मैं आपके समक्ष गौतमकुलक के पच्चीसवें जीवनसूत्र पर ही चिन्तन प्रस्तुत करूंगा। कल मैंने इसी सूत्र पर 'श्री' का महत्त्व, श्रीसम्पन्नता और श्रीहीनता तथा श्री के निवास-अनिवास पर वर्णन करते हुए 'संभिन्नचित्त' शब्द के दो अर्थों पर विवेचन किया था। आज उससे आगे के अन्य अर्थों पर मैं अपना चिन्तन प्रस्तुत
करूंगा।
'संभिन्नचित्त' का तीसरा अर्थ : रूठा हुआ, विरुद्ध चित्त संभिन्नचित्त का तीसरा अर्थ रूठा हुआ चित्त भी होता है। संभिन्न का अर्थ विरुद्ध होता है, अतः इसमें से रूठा हुआ अर्थ फलित होता है ।
प्रायः लोगों की यह शिकायत रहती है कि 'हमारा चित्त अशुद्ध है।' यह शिकायत ठीक भी है। अगर उनका चित्त अशुद्ध न होता तो उन्हें दुःख-द्वन्द्वों का सामना न करना पड़ता । मनुष्य चाहता है कि चित्त उसके वश में रहे, सत्कार्यों को करे, प्रसन्न रहे, किन्तु चित्त की उच्छृखलता के कारण यह ऐसा नहीं कर पाता । चित्तदोष के कारण उसका चित्त उच्छृखल एवं विरोधी हो जाता है, इसे ही रूठा चित्त कहा जाता है । यही कारण है कि उच्छृखल एवं विरोधी चित्त वाला मनुष्य न चाहते हुए भी असत्कार्यों में प्रवृत्त हो जाता है। फलस्वरूप वह दुःख, शोक और पश्चात्ताप का भागी बनता है।
वस्तुतः लोगों की यह शिकायत सही है कि हमारा चित्त बुराई से हटता नहीं; चाहते तो बहुत हैं, धर्मध्यान भी करते हैं, जप, तप, एवं उपासना तथा सामायिक आदि अनुष्ठान भी करते हैं, किन्तु फिर भी चित्त विषयों से हटता ही नहीं, बुराइयाँ हर क्षण चित्त में आती रहती हैं।
वस्तुतः व्यक्ति को रुचि जिन विषयों में होती है, उसी में वह तृप्ति अनुभव करता है, उन्हीं का चिन्तन करता है। चित्त को जब किसी विषय में रुचि नहीं होती, तभी वह अन्यत्र भागता है । चित्त तो व्यक्ति की इच्छानुसार रुचि लेता है । जिन व्यक्तियों को तरह-तरह की स्वादिष्ट वस्तुएँ खाते रहने में रुचि होती है, वे इसी में भटकते रहते हैं। स्वादिष्ट चीजें बार-बार खाते रहने पर भी किसी से उनकी तृप्ति नहीं होती । एक के बाद दूसरे पदार्ग में अधिक स्वाद प्रतीत होता है। इस स्वाद के चक्कर में न तो उन्हें अपने स्वास्थ्य का ध्यान रहता है और न भविष्य का। उनका पाचन संस्थान खराब हो जाता है, स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, तब कहते हैं--हम क्या
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