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________________ १३४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ वैज्ञानिक ने उसके कुण्ठाग्रस्त चित्त को सुधारने के लिए सेना में भर्ती करा देने की सलाह दी । फलतः वह भर्ती करा दिया गया। आज वह एक अच्छा फौजी जनरल है । सैनिक जीवन की कठोरताओं में भी वह सफलता पाता रहा । कई कुण्ठाग्रस्त लोग अन्दर ही अन्दर घुलते रहते हैं, कोई आन्तरिक दुःख, पीड़ा, व्यथा या वेदना उन्हें व्यथित करती रहती है । इस प्रकार के आन्तरिक दुःख का कारण गुप्त (अवचेतन) मन में कटु स्मृतियों या भावी आशंकाओं को सहेजना और सतत उन्हें पोसना है । ऐसे लोगों के चित्त पर एक बोझ हो जाता है, जो हटाने का प्रयत्न किये जाने पर भी नहीं हटता, चित्त का भार हल्का नहीं होता । ऐसे व्यक्ति ऊपर से हँसते हैं, पर अन्दर से निराशा की काली छाया से घिरे रहते हैं । जब वे एकान्त में होते हैं, तब विक्षुब्ध होकर रोते हैं, आँसू बहाते हैं, संसार उन्हें अन्धकारपूर्ण एवं निराशा से भरा लगता है । 1 जाता है। आर्त्तध्यान की व्यक्ति के चित्त का भार ऐसे व्यक्ति का किसी भी काम में मन नहीं लगता । सब व्यर्थ सा जान पड़ता है उसे । न उसका जप-तप में चित्त लगता है न धर्म-ध्यान में । कभी-कभी वह अत्यन्त दुःखित होकर आत्महत्या करने पर उतारू हो इस प्रक्रिया का नाम कुण्ठित चित्त है । ऐसे कुण्ठितचित्त उसके प्रति आत्मीयता रखने वाले इष्ट मित्रों या सज्जनों द्वारा ही हलका हो सकता है । ऐसे लोगों से खुलकर बातें करने से वे अपनी असली व्यथा प्रकट करते हैं । उनके साथ सान्त्वनापूर्वक बात करने से चित्त में छिपी हुई मिथ्याभीति या शंकाएँ निर्मूल हो सकती हैं । बन्धुओ ! ऐसा कुण्ठितचित्त व्यक्ति कैसे श्रीसम्पन्न हो सकता है ? उसके भाग्य में तो दरिद्रता ही लिखी होती है । क्योंकि कुण्ठितचित्त के कारण वह यथार्थ दिशा में पुरुषार्थ नहीं कर सकता, और जब पुरुषार्थ नहीं करेगा तो भौतिक या आध्यात्मिक किसी भी प्रकार की श्री उसके जीवन में निवास नहीं कर सकेगी। वह दरिद्रता से घिरा हुआ रहेगा । इसीलिए योगवशिष्ठ ( ३।२२।२२ ) में कहा है'अनुद्वेगः श्रियोमूलम्' "चित्त का उद्विग्न न होना ही श्री का मूल है ।" सम्भिन्नचित्त के दो अर्थों पर मैं अर्थों पर अगले क्रम में विवेचन करने की विस्तार से विवेचन कर चुका हूँ । अन्य भावना है । Jain Education International के आशा है, आप सब महर्षि गौतम कर सम्यक् पुरुषार्थ करेंगे और 'श्री' से सच्चे माने में सम्पन्न होंगे । संकेत के अनुसार सम्भिन्नवित्त से बच ✩ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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