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________________ १४० आनन्द प्रवचन : भाग ६ दार की तरह उद्विग्न बना रहा। आत्मा को सहयोग तो वह स्वयं अदूषित, शुद्ध एवं सुसंस्कृत दशा में ही दे सकता था, किन्तु दूषण, कुत्सा और मलीनता से लिपटा हुआ चित्त भला आत्मा की बात कैसे सुनता, और कैसे सोचता शास्त्रों और गुरुओं की वाणी पर ? यही कारण है कि असहयोगी रूठे चित्त ने जीवन-प्रासाद की सारी शोभा बिगाड़ डाली। तब हर कार्य में विजयश्री के बदले पराजय एवं असफलता के ही दर्शन न होंगे तो क्या होगा ? संभिन्नचित्त का चौथा अर्थ : व्यग्र या असंलग्न चित्त संभिन्न चित्त का एक अर्थ है-व्यग्र, बिखरा हुआ या असंलग्न चित्त । चित्त की एकाग्रता से जहाँ काम नहीं किया जाता, वहाँ शक्ति बिखर जाती है और उस काम में सफलता एवं विजयश्री प्राप्त नहीं होती। किसी भी कार्य में चित्त की एकाग्रता के साथ संलग्न हो जाने से ही उस कार्य में सिद्धि या विजयश्री मिल सकती है। ____ इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विद्वान् कार्लाइल का कथन है कि एक ही विषय पर अपनी शक्तियों को केन्द्रित कर देने से कमजोर से कमजोर प्राणी भी कुछ कर सकता है, मगर एक बहुत बलवान प्राणी भी यदि अपनी शक्तियों को अनेक विषयों में बिखेर देता है तो फिर वह कुछ भी नहीं कर सकता। एक-एक बूंद पानी अगर एक ही स्थान पर निरन्तर पड़ता रहे तो कठोर से कठोर पत्थर में भी छेद हो जाता है, पर यदि पानी का बहाव एक बार शीघ्रतापूर्वक उस पर से निकल जाए तो उसका नामोनिशान भी उस पत्थर पर नहीं दिखाई पड़ता। सूर्य की स्वाभाविक धूप जो शरीर पर पड़ती है, कठोर गर्मी में भी उसे शरीर सहन कर लेता है, क्योंकि किरणें बिखरी हुई होती हैं, अत: वे अपना साधारण ताप ही दे पाती हैं। लेकिन नतोदर आतशी शीशे के लेन्स से अगर एक इंच भी स्थान में सूर्य किरणों को केन्द्रित कर दिया जाए तो उस ताप को शरीर का कोई भी अंग सहन न कर सकेगा। कोई भी वस्त्र या कागज उसके निकट होगा तो जले बिना न रहेगा । केन्द्रीभूत सूर्यकिरणसमूह से कहीं भी आग पैदा हो जाती है, केन्द्रित सूर्य किरणों की शक्ति की तरह किसी एक विषय में केन्द्रित चित्त की शक्ति भी अपरिमित हो जाती है। बहुत बार देखा जाता है कि एक ही व्यक्ति द्वारा एक बार किया हुआ काम बड़ा सुन्दर होता है, और उसी व्यक्ति द्वारा वही काम दूसरी बार बिगड़ जाता है। एक ही काम, एक ही कर्ता और एक ही समय, फिर कार्य की यह उत्कृष्टता और निकृष्टता क्यों ? ऐसा तो नहीं हो सकता कि पहली बार जब उसने उस कार्य को सुन्दरतापूर्वक किया, तब उसकी योग्यता अधिक थी और दूसरी बार जब काम बिगड़ गया तो उसकी योग्यता कुछ कम हो गई थी। बल्कि पहली बार की अपेक्षा दूसरी बार में अभ्यास और अनुभव के कारण योग्यता में वृद्धि होनी चाहिए थी, कमी नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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