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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ १२५ जो जुआ खेलकर लक्ष्मी प्राप्त करने की या अन्याय-अनीति या बेईमानी से, या पशुहत्या करके या महारम्भ करके धन पाने का पुरुषार्थ करता है, उससे कदाचित् उसे लक्ष्मी मिल भी जाए, लेकिन वह अधिक दिन टिकती नहीं। इसी बात का समर्थन शुक्रनीति में किया गया है __ "यत्र नीति-बले चोभे, तत्र श्रीः सर्वतोमुखी।" जहाँ नीति और बल (भौतिक एवं आध्यात्मिक) दोनों का सम्मिलन है, वहीं लक्ष्मी सर्वतोमुखी होकर रहती है। व्यावहारिक जीवन में लक्ष्मी का निवास कहाँ है ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। पुराणों में लक्ष्मी और इन्द्र के संवाद का वर्णन मिलता है। वहाँ इन्द्र के पूछने पर लक्ष्मी स्वयं अपने निवास के सम्बन्ध में बताती है गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र वाणी सुसंस्कृता। अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक ! वसाम्यहम् ।। "जहाँ गुरुजनों की पूजा (सत्कार-सम्मान) होती है, जहाँ सुसंस्कृत सभ्य वाणी है, और जहाँ दन्तकलह (लड़ाई झगड़ा) नहीं है, हे इन्द्र ! वहीं मैं (लक्ष्मी) निवास करती हूँ।" इसके विपरीत जहाँ बड़ों-बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता, जिस घर में कटु एवं असभ्य वाणी है, और जहाँ आए दिन महाभारत होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती। इसी प्रकार आलसी, अकर्मण्य एवं संशयशील के पास भी लक्ष्मी नहीं फटकती। लक्ष्मी कहाँ नहीं रहती ? इसके उत्तर में भोजप्रबन्ध (२०) में कहा गया है-- अतिदाक्षिण्ययुक्तानां, शंकितानां पदे-पदे । परापवादभीरुणां, दूरतो यान्ति सम्पदः ॥ जो आदमी अत्यन्त सयाने होते हैं, पद-पद पर शंका करते रहते हैं, एवं लोकनिन्दा (लोगों के द्वारा सच्ची बात की भी की गई आलोचना) से डरते हैं, उनसे सम्पत्तियाँ दूर ही रहती हैं। चाणक्यनीति (१५/४) में श्रीहीनता के सम्बन्ध में कहा गया है कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं, बह्वाशिनं निष्ठुर भाषिणं च । सूर्योदय चास्तमिते शयानं, विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः ॥ 'जो मैलेकुचले गंदे कपड़े रखता है, दांतों पर मैल जमा किये रखता है, बहुत अधिक खाता है, कठोर वचन बोलता है और सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोया पड़ा रहता है, लक्ष्मी उसका परित्याग कर देती है, भले ही वह चक्रपाणि-विष्णु ही क्यों न हो।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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