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आनन्द प्रवचन : भाग ६
राजा और सभी सभासद ये उत्तर सुनकर दंग रह गमे। सभी ने उस चरवाहे को धन्यवाद दिया।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि श्री का अर्थ शोभा है, जो बहुत व्यापक है। इसमें आध्यात्मिक प्रतिभाएँ, शक्तियाँ, तेजस्विता, चमक आदि सभी का समाबेश हो जाता है।
. 'श्रीमान' शब्द केवल लक्ष्मी (धन) वान के लिए ही प्रयुक्त नहीं होता, तेजस्वी त्यागी, प्रतिभासम्पन्न, आदरणीय, उच्च पदाधिकारी आदि सबको श्रीमान् कहा जाता है।
निष्कर्ष यह है कि 'श्री' शब्द केवल लक्ष्मी (धन) अर्थ में ही नहीं, तथा यह केवल भौतिक लक्ष्मी के अर्थ में ही नहीं, भौतिक कान्ति, शोभा, तेजस्विता, सफलता, सिद्धि, विजयश्री आदि अर्थ में भी है, और आध्यात्मिक कान्ति, शोभा, तेजस्विता, सफलता, सिद्धि एवं विजयश्री आदि अर्थों में भी समझ लेना चाहिए । भगवद्गीता में विभूतियों का वर्णन करते हुए योगीश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है
यद् यद् विभूति मत्सत्वं श्रीमजितमेव च ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽश सम्भवम ॥ अर्थात्-"जो-जो विभूतिमान् (ऐश्वर्ययुक्त) सत्त्व (प्राणी) है, जो श्रीमान (श्रीसम्पन्न) है, तथा ऊर्जित (आन्तरिक बलशाली) है, उस सत्त्वशाली प्राणी को तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न समझ ।"
यहाँ 'श्री' केवल भौतिक लक्ष्मी का वाचक नहीं, अपितु आन्तरिक लक्ष्मी का सूचक है। 'श्री' कहाँ रहती है, कहाँ नहीं ?
_ 'श्री' का महत्त्व और उसके इतने अर्थ और रूप समझ लेने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिस 'श्री' की इतनी महत्ता है, वह कहाँ रहती है ? कहाँ नहीं रहती ? भारतीय चिन्तकों ने इस बात को तो एक स्वर से स्वीकार किया है कि
'उद्योगिनः पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः' जो व्यक्ति पुरुषार्थी है, उद्योगी है, उसी को लक्ष्मी प्राप्त होती है । परन्तु पुरुषार्थ या उद्योग का मतलब चाहे जैसा, अनीतियुक्त, हिंसाजनित, आरम्भसमारम्भ का पुरुषार्थ नहीं है, इसी का स्पष्टीकरण करते हुए चाणक्य सूत्र में बताया
'परोक्ष्यकारिणि श्रीश्चिरं तिष्ठति' । "जो व्यक्ति चारों ओर से सोच-विचारकर किसी कार्य में पुरुषार्थ करता है, उसके पास ही लक्ष्मी चिरकाल तक ठहरती है।"
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