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________________ ११६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ ही धन को खींचता है, माया से ही माया मिलती है, इस प्रकार की उत्साहहीन बातें कहकर स्वयं के भाग्य को कोसता हुआ दरिद्रता की आग में झुलसता रहता है, वह वास्तव में दरिद्र है । ऐसी दरिद्रता का निवारण किया जा सकता है, पर जो स्वयं अपने-आप को दरिद्रता की मूर्ति ही मान बैठता है, और उसके निवारण के लिए कुछ भी प्रयत्न भी नहीं करता, उसे तो कोई भी शक्ति ऊंचा नहीं उठा सकती। मन के लूले-लँगड़े और बुद्धि से दरिद्र व्यक्ति को कोई भी धनसम्पन्न नहीं बना सकता। ___एक सज्जन ने बहुत परिश्रम करके बी० ए० परीक्षा उत्तीर्ण करली। साथ ही वकालत भी पास कर ली। परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी वे दरिद्र ही रहे, अपना निर्वाह भी न कर पाये । क्योंकि न तो उनसे वकालत ही हुई, न उन्होंने छोटीमोटी नौकरी ही ढूंढ़ी। उनके चित्त में यह बात बैठ गयी थी कि मैं जन्म से दरिद्र हूँ। मेरा जीवन दरिद्रता में ही बीतेगा। व्यर्थ भटकने और इधर-उधर हाथ-पैर मारने से क्या लाभ ? इस प्रकार आत्मविश्वास की कमी के कारण वे निराश हो गए । एक दिन वे एक ज्योतिषी के पास पहुंचे और उससे अपनी कष्ट कथा कहने लगे-"महाराज ! मैंने बहुत से काम किये, पर मुझसे कोई भी काम पूरा न हो सका । न धन मिला, और न यश ! सर्वत्र अपमानित होकर मैं आज दरिद्र बनकर जी रहा हूँ। देखिये तो मेरी यह जन्मकुण्डली, इसमें कहीं मेरी दरिद्रता दूर होने की बात भी लिखी है या नहीं ?" ज्योतिषी बहुत ही चालाक और मन के पारखी थे। उन्होंने उसकी जन्मकुण्डली देखकर कुछ गणना की और अन्त में मानसिक दरिद्रता से परास्त उस व्यक्ति से कहा-"हाँ भाई ! ऐसा ही कुछ जान पड़ता है।" वास्तव में, जो मन से दरिद्रता को अपने पर ओढ़ चुकता है, उसे ज्योतिषी क्या, कोई भी देवी-देव या भगवान भी दरिद्रता से बचा नहीं सकते । जब मनुष्य में अपनी योग्यता और शक्ति पर विश्वास नहीं रह जाता, तब धीरे-धीरे उसमें उन गुणों का भी ह्रास होने लगता है, जिनके कारण वह सफल मनोरथ, श्रीसम्पन्न या विजयश्री से युक्त हो सकता है। ऐसी अवस्था में उसका जीवन ही दूभर हो जाता है । तब न तो उसमें किसी प्रकार की सदाकांक्षा रह जाती है, न सत्कार्य करने की शक्ति रह जाती है, न कार्य करने का ढंग रहता है और न उसे सफल होने में कोई सहायता मिलने की आशा रहती है । परिणाम यह होता है कि वह एक ऐसे ढालुए स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ से वह बराबर नीचे ही गिरता जाता है, ऊपर नहीं उठ पाता। जैसा कि पाश्चात्य विदुषी औइडा (Ouida) ने कहा है "Poverty is very terrible and sometimes kills the very soul within us." "दरिद्रता बड़ी खतरनाक वस्तु है, और कभी-कभी वह हमारी अन्तरात्मा को मार देती है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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