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संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ ११७
दरिद्रता अपने आप में उतनी भयंकर और विनाशक नही है, किन्तु जब मनुष्य दरिद्रता को अपने में ओत-प्रोत कर लेता है, अपनी दरिद्रता को शाश्वत समझ बैठता है, अपने आपको दीन-हीन, भिखारी एवं कंगाल मान लेता है, दरिद्रता के भय से सदा भयभीत, आतंकित और शंकित बना रहता है, सदैव विफलता के ही विचार किया करता है, तब वह दरिद्रता अत्यन्त भयंकर और विनाशक हो जाती है । दरिद्रता के भावों से पीड़ित ऐसा व्यक्ति दीनतापूर्वक दरिद्रता की ओर बढ़ता जाता है, उससे पराङ्मुख होकर पीछा छुड़ाने का साहस नहीं करता । जब देखो तब वह दरिद्रता के वातावरण एवं मनोभावों से घिरा रहता है । ऐसी मानसिक दरिद्रता सदैव आत्मविश्वास और आत्मगौरव पर आघात किया करती है । तात्पर्य यह है कि दरिद्रता का विचार करते हुए मनुष्य चाहे जितना कठोर पुरुषार्थ क्यों न कर ले, न तो वह उस कार्य में सफल होगा और न ही श्रीसम्पन्न । जब व्यक्ति अपना मुख दरिद्रता की ओर ही रखेगा, तब वह श्रीसम्पन्नता कैसे प्राप्त कर सकेगा ? जब किसी का कदम विफलता की ओर ले जाने वाली सड़क पर पड़ेगा तो वह सफलता के मन्दिर तक कैसे पहुँच सकेगा ? जब दृष्टि दरिद्रता पर ही गड़ी होगी तो श्रीसम्पन्नता तक वह कैसे पहुँच सकेगा ?
दरिद्रता के विचार ही मनुष्य को दरिद्रता से जोड़े - बाँधे रखते हैं और दरिद्रतापूर्ण परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करते हैं । क्योंकि जब व्यक्ति रात-दिन दरिद्रता के सम्बन्ध में ही चर्चा, बात-चीत या जीवनयापन करता है, तब वह मानसिक दृष्टि से बिलकुल दरिद्र हो जाता है और यही सबसे अधिक निकृष्ट दरिद्रता है ।
जिन लोगों का चित्त सदा चिन्तित रहता है, हृदय बहुत ही संकुचित, अनुदार और स्वार्थी रहता है, वे धन एकत्र होने पर भी दरिद्र - मनोवृत्ति के रहते हैं । बहुत ही कंजूसी करके और कष्ट झेलकर मम्मण सेठ की तरह धन को एकत्र करके उसको तिजोरी में बंद कर देना, स्वयं बीमार पड़ने पर या अपने परिवार में से किसी के बीमार पड़ने पर एक पैसा भी खर्च न करना, ठण्ड में ठिठुरते रहना, पर गर्म कपड़े न लेना, किसी दुःखी को एक पैसा मदद भी न करना, ये सब मनोव्यापार धन होने पर भी दरिद्रता के समान हैं। जैसे धन न होने के कारण एक दरिद्र सदा शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाया करता है, वैसे ही इस प्रकार का अनुदार, संकीर्णहृदय कंजूस धन होने पर भी कष्ट उठाया करता है, है वह दरिद्र का दरिद्र ही ।
श्रीसम्पता किसको, किसको नहीं ? श्रीसम्पन्नता संसार में उन्हीं लोगों को वास्तविक रूप में प्राप्त हुई है, जो उदारचेता, साहसी, व्यापक मनोवृत्ति वाले तथा पुरुषार्थी रहे हैं । जिनके चित्त में आत्मविश्वास और उत्साह का दीपक जल उठा है, जो दान, पुण्य, परोपकार एवं सेवा करके श्रीसम्पन्नता के बीज बोते रहे हैं । जिन लोगों ने अपने हृदय से दरिद्रता के भाव निकाल फेंके हैं, जो सदा हर प्रवृत्ति को आशा और श्रद्धा, तथा लगन और तत्परता के साथ करते रहे हैं, जो सदा अपने चित्त में सफलता और सम्पन्नता की
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