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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ ११५ दोनों ने अपने-अपने दोष को स्वीकार करते हुए पश्चात्ताप प्रगट किया। ब्राह्मण ने भी दोनों से अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करते हुए कहा-'अगर तुम मुझे गिरफ्तार न कराती तो राजा भोज हमारी दरिद्रता को दण्ड कैसे देता ? एक हजार स्वर्णमुद्राएँ कैसे आती ?" बन्धुओ ! यह है दरिद्रावस्था से होने वाली दुरवस्थाओं का चित्रण ! क्या आप कह सकते हैं कि दरिद्रता-श्रीहीनता अच्छी वस्तु है ? . भौतिक दरिद्रता कितनी खतरनाक जिसमें भौतिक दरिद्रता तो और भी अधिक भयंकर और विनाशक है। जब मनुष्य घोर दरिद्रावस्था में हो, उस समय उसकी मानवता भी सुरक्षित रहनी कठिन हो जाती है । जब वह चारों ओर तकाजे करने वाले ऋणदाताओं से घिरा हुआ हो, पैसे-पैसे का मोहताज हो, उसके स्त्री-बच्चे भूख के मारे बिलबिला रहे हों, उस समय उसके लिए मानमर्यादा का निभाना भी प्रायः असम्भव हो जाता है। कोई विरला ही ज्ञानी एवं सम्यग्दृष्टि पुरुष होता है, जो ऐसी दरिद्रावस्था में भी प्रसन्न, मस्त, निर्भीक होकर स्वतंत्रतापूर्वक सिर उठा सकता है। अन्यथा, देखा यह गया है कि दरिद्रता के कारण कई अच्छे-अच्छे जीवन भी नष्ट हो गए हैं, कई अच्छे प्रतिभावान व्यक्ति दरिद्रता की चक्की में पिसकर अपनी योग्यताओं और क्षमताओं से हाथ धो बैठे हैं। दरिद्रावस्था में पैदा होने वाले अधिकांश व्यक्ति न तो बलवान हो सके हैं, और न ही प्रसन्न व स्वस्थ रह सके हैं। दरिद्रता के कारण उनका चेहरा मुाया रहता है, वे असमय में ही बूढ़े हो जाते हैं । जो किसी अंगविकलता या शारीरिक अस्वस्थता के कारण दरिद्र हो जाते हैं, उनका समाज में अनादर नहीं होता, समाज उनको सहायता भी देता है । वास्तविक दरिद्रता तो वह है, जिसमें मनुष्य स्वयं दीन-हीन बन जाएँ, अपने प्रति, या अपनी योग्यता, शक्ति, सामर्थ्य और क्षमता के प्रति अविश्वास लाकर आत्महीनता का शिकार बन जाए । या वह दरिद्रता जो चित्त में चंचलता और शिथिलता के भाव लाकर निठल्ला, अकर्मण्य, उदास और परभाग्योपजीवी बनकर बैठने, किसी भी कार्य को मन लगाकर न करने अथवा अनाचार एवं दुर्व्यसनों से युक्त जीवन बिताने के कारण होती है । अथवा ठीक तरह से विचार और कार्य न करने के कारण होती है। - कई बार जब मनुष्य सामर्थ्य रहते और सशक्त होते हए भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है, अमुक परिश्रम का कार्य करने से जी चुराता है, अपनी अयोग्यता और अकर्मण्यता का बहाना बनाता है, या भाग्यवादी बनकर यह कहता फिरता है कि मेरे भाग्य में तो दरिद्रता ही लिखी है, मैं तो आजीवन दरिद्र ही रहूँगा, अगर भगवान की इच्छा मुझे धनवान बनाने की होती तो जन्म से ही या होश सँभालते ही मुझे धन दे देता, दरिद्र न रखता, या दरिद्र के घर में जन्म न देता; अथवा हमारे पास धन तो है ही नहीं कि जिससे कुछ धंधा करके धन कमा लें और दरिद्रता मिटा दें, क्योंकि धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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