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________________ ११४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अन्तरात्मा कहती है, यह दोष इनमें से किसी का नहीं, सिर्फ इसकी दरिद्रता का है। इसके घर में दरिद्रता का राज्य है, जिसके कारण यह सारी सिरफुटौव्वल है । मुझे इसकी दरिद्रता को दण्ड देना चाहिए। राजा भोज ने दरिद्र विप्र से कहा- 'मैंने आपकी सारी व्यथा समझ ली है और मैं इसका उचित उपाय करता हूँ। परन्तु भविष्य में फिर इस घटना की पुनरावृत्ति हुई तो भारी दण्ड मिलेगा । जाओ, भण्डारी को मेरा यह परिपत्र दिखा दो और एक हजार स्वर्णमुद्राएँ ले लो।" । ब्राह्मण गम्भीर होकर बोला-"महाराज ! आपने घर में कलह कराने और खुराफात मचाने वाली दरिद्रता को दण्ड दे दिया है, फिर मैं क्यों ऐसा करूंगा ?" ब्राह्मण वह परिपत्र लेकर जब भण्डारी के पास गया और भण्डारी ने कैफियत सुनी तो वह राजा भोज के पास आया और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा-"महाराज ! क्या इस ब्राह्मण की अपनी पत्नी को पीटने के अपराध में आप दण्ड न देकर उलटे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कारस्वरूप दिला रहे हैं । इससे अनर्थ हो जाएगा। भविष्य में पत्नियों की दुर्गति हो जाएगी। आए दिन कोई न कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को पीटकर इनाम लेने के लिए आपके पास दौड़ा आएगा।" भोज राजा ने कहा-'भण्डारी ! मैं भी इसे समझता हूँ। यह इनाम पत्नी को पीटने के उपलक्ष्य में नहीं, इस ब्राह्मण के घर में गृहकलह और एक दूसरे के प्रति विनयमर्यादा के अभाव के मूल कारण-दारिद्र य को दण्ड देने के उपलक्ष्य में है । यों कोई भी मनचला अकारण ही या स्वभाववश पत्नी को पीटेगा तो उसे तो दण्ड दिया ही जाएगा।" भण्डारी का समाधान हो गया। उसने ब्राह्मण को एक हजार स्वर्णमुद्राएँ गिनकर दे दी। ब्राह्मण एक गठड़ी में उन स्वर्णमुद्राओं को रखकर उस गठड़ी को अपने सिर पर उठाए घर की ओर चल पड़ा। दूर से ही ब्राह्मण को आते देख उसकी पत्नी ने अपनी सास से कहा-“देखो ! वे आ रहे हैं, मैं जाती हूँ, उनके सिर का बोझ ले लेती हूँ। थैली में कुछ पीली-पीली-सी चीज है। मालूम होता है, कहीं से मक्की ले आए हैं।" __ माता ने कहा-"बहू ! तू मत जा । तेरे सिर का अभी तक घाव भरा नहीं है। मैं जाती हूँ।" "नहीं माताजी ! आप बूढ़ी हैं । आपसे यह बोझ न उठेगा।" यों कहती हुईं वे दोनों ही ब्राह्मण के सिर का बोझ लेने चल पड़ीं । ब्राह्मण से जब उसकी पत्नी और माँ दोनों ने बोझ दे देने के लिए कहा तो उसने साफ इन्कार करते हुए स्नेहवश कहा- "देखो, प्रिये ! तुम्हारे सिर में तो अभी चोट लगी है, और माँ बूढ़ी है। दोनों को यह बोझ नहीं दूंगा।" यों कहते-कहते उसने घर पहुँचकर वह गठड़ी नीचे उतारी । गठड़ी खोलकर देखा तो चमचमाती हुई स्वर्णमुद्राएँ। माता और पत्नी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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