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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ ११३ बयान लिए । उसने कहा- 'मैंने इन्हें कमाकर लाने को कहा। भोजन का सामान ला देने के लिए बार-बार सावधान किया, जिस पर नाराज होकर मुझे पीट दिया । देखलो, मेरा हाल यह है।" पुलिस ने ब्राह्मण का अपराध मानकर उसे गिरफ्तार कर लिया और सीधे वे कोतवाली-थाने में ले गए। वहाँ ब्राह्मण से कहा गया कि, "अपने बयान लिखाओ कि तुमने अपनी पत्नी को इतना क्यों पीटा ?" ब्राह्मण ने लज्जावश सोचा-अगर इनके सामने बयान दिया तो कुछ आश्वासन मिलना तो दूर रहा, उलटे फजीहत होगी। अतः मुझे तो राजा के सामने ही बयान देना चाहिए । अत: ब्राह्मण ने उनसे कहा-“मैं अपने बयान राजाजी के सामने ही दूंगा, यहाँ नहीं।" कोतवाल तथा अन्य पुलिस विभाग के कर्मचारियों ने ब्राह्मण को बहुत कुछ धमकाया, समझाया किन्तु वह टस से मस न हुआ । ब्राह्मण की जिद्द देखकर थाने के लोगों ने सोचा-जाने दो, यह राजा के सामने ही अपने बयान दे देगा। अगर गलत बयान दिया तो हम भी देख लेंगे। दूसरे ही दिन सिपाहियों ने दरिद्र ब्राह्मण को राजा भोज के समक्ष प्रस्तुत किया । राजा भोज ने पूछा- "इसे किस अपराध में पकड़ा गया है ?" सिपाही बोला-"हुजूर ! इस ब्राह्मण ने बिना ही अपराध के अपनी पत्नी को बहुत अधिक मारा-पीटा है, उसके सिर से रक्त की धारा बह चली। अपनी पत्नी के प्रति इसका व्यवहार अच्छा नहीं है।" राजा भोज ने दरिद्र विप्र से पूछा-"क्यों विप्रवर ! यह कह रहा है, वह ठीक है न?" ब्राह्मण ने लज्जा के मारे सिर नीचा करके कहा-"और तो सब ठीक है। मगर मुझे ब्राह्मण कहा जा रहा है, यह गलत है। मैं अपने अपराध को स्वीकार करता हूँ और जो भी दण्ड देंगे वह भी मंजूर करूंगा।" राजा ने पूछा-"क्या तुम ब्राह्मण नहीं हो ?" वह बोला- 'देव ! ब्राह्मण तो था, पर अपनी पत्नी को क्रोधवश पीटते समय मुझमें चाण्डालत्व आ गया था।" राजा भोज ने सोचा-यह बाह्मण वैसे तो विद्वान है, कुलीन है, इसकी आँखों में शर्म है, मन में पश्चात्ताप भी है, अपनी सारी स्थिति सत्य-सत्य बतला दी है । इसलिए मूल अपराध इसका नहीं और न ही इसकी पत्नी और माता का है। यह कहता है कि 'न तो पत्नी मुझसे सन्तुष्ट है, न माता और न दोनों परस्पर एक दूसरे से तुष्ट हैं और न ही मैं उन दोनों से सन्तुष्ट हूँ, बताइए राजन् किसका दोष है ?' मेरी १ अम्बा न तुष्यति मया, साऽपि नाम्बया न मया। अहमपि न तया, न तया, वद राजन् कस्य दोषोऽयम् ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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