SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं ऐसे जीवन पर विवेचन करना चाहता हूँ, जो सदैव सर्वत्र 'श्री' से वंचित रहता है, अर्थात्-लक्ष्मी, शोभा, सफलता, विजयश्री या सिद्धि उसके पास फटकती नहीं, श्री उस अभागे से सदा रूठी रहती है। जीवन में वह सदैव दुर्भाग्यग्रस्त बना रहता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन सदा अनिश्चयात्मक स्थिति में रहता है । जीवन का सच्चा आनन्द, असली मस्ती और आत्मिक सुख वह नहीं प्राप्त कर सकता है। गौतम महर्षि ने ऐसे जीवन को संभिन्नचित्त-जीवन कहा है, जो सदैव, सर्वत्र श्री से रहित रहता है । गौतमकुलक का यह पच्चीसवाँ जीवनसूत्र है, जो इस प्रकार है "संभिन्नचित्त भयए अलच्छी" 'संभिन्नचित्त मानव अलक्ष्मी-दरिद्रता पाता है, श्री से वंचित रहता है।' 'श्री' का महत्व मानवजीवन में 'धी' और श्री' यानी बद्धि और लक्ष्मी, दोनों का महत्व प्राचीनकाल से माना जाता रहा है। यद्यपि त्यागीवर्ग के जीवन में लक्ष्मी-'श्री' का महत्त्व इतना नहीं है, किन्तु जहाँ गृहस्थ भौतिक लक्ष्मी की आकांक्षा में रहता है, वहाँ साधु-संन्यासी वर्ग आत्मिकलक्ष्मी आध्यात्मिक श्री या लक्ष्मी को पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है । बुद्धि (धी) के महत्त्व के सम्बन्ध में पिछले दो प्रवचनों में बता आया हूँ। इस प्रवचन में श्री (लक्ष्मी) के महत्त्व की ओर इंगित किया गया है। 'श्री' से वंचित जीवन सदैव कुण्ठाग्रस्त, अभावपीड़ित, अनादरणीय और उपेक्षणीय रहा है। जहाँ 'श्री' नहीं होती, वहाँ उदासी, मायूसी और दुदैव की छाया रहती है। श्रीहीन जीवन कान्तिहीन चन्द्रमा, प्रकाशहीन सूर्य या उजाले से रहित दीपक की तरह निस्तेज और फीका होता है । श्रीविहीन जीवन में कोई उत्साह, किसी कार्य को करने का साहस, संकल्प अथवा स्फुरण नहीं होता । वह सदैव चिन्तित, उदासीन, एवं अभाग्यग्रस्त होता है। श्रीविहीन व्यक्ति से परिवार वाले भी सीधे मुँह नहीं बोलते, समाज में भी उसकी कोई कद्र नहीं करता, बन्धु-बान्धव, मित्र तक उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखने लग जाते हैं। कहा भी है .. यस्यास्तिस्य मित्राणि, यस्यास्तिस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमांल्लोके, यस्यार्थाः स च पण्डितः ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy