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संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १
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जिसके पास धन होता है, उसी के मित्र होते हैं; जिसके पास लक्ष्मी है, उसी के बान्धव होते हैं; वही संसार में मर्द समझा जाता है, जिसके पास धन का ढेर हो; और वही पण्डित (समझदार) माना जाता है, जिसकी तिजोरी में चाँदी की छनाछन हो।
श्रीहीनता बनाम दरिद्रता श्रीहीनता का अर्थ दरिद्रता, निर्धनता या गरीबी होता है। दरिद्रता कोई नैसर्गिक या स्वाभाविक वस्तु नहीं होती, किन्तु जब वह मनुष्य के किसी दुर्गुण या प्रमाद के कारण आती है तो उसके विकास को रोक देती है। वास्तव में जो मनुष्य चारों ओर से दरिद्रता से जकड़ा हुआ हो, वह अपने गुणों या क्षमताओं का पूरा विकास नहीं कर पाता, अच्छे से अच्छा काम करके नहीं दिखला सकता।
नारकीय जीवों का अथवा तिर्यञ्चों का जीवन दरिद्रता, पराधीनता, अज्ञानता से परिपूर्ण होता है, यह तो आपने शास्त्रों से जाना ही होगा । घोर दरिद्रावस्था या विपन्नता में विकास के सारे द्वार प्रायः बन्द हो जाते हैं; उसके सामने केवल जीने का प्रश्न मुख्य रहता है। परन्तु ऐसी श्रीहीनता या विपन्नता में जीना मरणतुल्य है। मृच्छकटिक में इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डाला है
दारिद्र यान्मरणाद्वा मरणं मे रोचते, न दारिद्र यम् ।
अल्पक्लेशं मरणं दारिद्र यमन्तकं दुःखम ॥ __'दरिद्रता और मृत्यु इन दोनों में से मुझे मृत्यु पसन्द है, दरिद्रता नहीं; क्योंकि मृत्यु में तो थोड़ा-सा कष्ट है, किन्तु दरिद्रता में तो आमरणान्त कष्ट है।'
जिसे दिन-रात यह चिन्ता लगी रहती है, कि मैं किस प्रकार अपना पेट भरूँ, वह अपना जीवन सुव्यवस्थित, संगत, एवं स्वतन्त्र नहीं रख सकता। प्रायः वह निर्भीकतापूर्वक अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट नहीं कर सकता। यदि वह किसी अच्छे और स्वच्छ स्थान में रहना चाहता है तो विवशतावश रह नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि दरिद्रता मनुष्य को बहुत ही तुच्छ और छोटा बना देती है, वह उसकी समस्त महत्त्वाकांक्षाओं और सत्कार्य की भावनाओं को मटियामेट कर देती है।
दरिद्रावस्था में मानव के जीवन में कोई आशा, उत्साह, आनन्द और प्रगति का अवसर नहीं रहता। यहाँ तक कि जिन लोगों को सदैव परस्पर प्रसन्नतापूर्वक हिल-मिलकर रहना चाहिए, जीवन निर्वाह करना चाहिए, उन लोगों के पारस्परिक प्रेम का नाश इसी दरिद्रता के कारण हो जाता है। दरिद्रता के कारण निस्तेज जीवन का चित्रण करते हुए एक कवि कहता है
निद्रव्यं पुरुषं सदैव विकलं, सर्वत्र मन्दादरम्, तातभ्रात सुहृज्जनादिरपि तं दृष्ट वा न सम्भाषते ।
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