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________________ क्रुद्ध कुशील पाता है अकोति १०१ अवश्य चाहता है कि वह ऐसे कार्य न करे जिससे उसकी कीर्ति को आँच पहुँचे, वह ऐसे कार्य करे, ऐसा आचरण और व्यवहार करे, जिससे कीर्ति बढ़े, कीर्ति की परम्परा चले । पाश्चात्य प्रसिद्ध साहित्यकार शेक्सपियर के शब्दों में आप इसे पढ़ सकते हैं “Mine honor, is my life, both grow in one, take honor from me and my life is done. ___ "मेरी प्रतिष्ठा (कीति) मेरी जिंदगी है, दोनों साथ-साथ बढ़ती हैं। मुझ से प्रतिष्ठा ले लो तो मेरी जिंदगी ही समाप्त हो जाएगी।" कीर्ति की आकांक्षा न रखने पर भी कीर्ति के प्रतीकसम प्रतिष्ठा का चला जाना, यानी अप्रतिष्ठित होकर जीना भी मनुष्य के लिए मृत्यु के समान है। इसीलिए भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है- . "संभावितस्य चाकीतिर्मरणादतिरिच्यते ।" "प्रतिष्ठित (सम्मानित) पुरुष के लिए अकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है।" 'मृच्छकटिक में चारुदत्त ने इसी बात को और जोरदार शब्दों में कहा है न भीतो मरणादस्मि, केवलं दूषितं यशः । विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमः किल ॥ 'मैं मृत्यु से नहीं डरता, केवल अपकीति से डरता हूँ। यशस्विनी मृत्यु मुझे पुत्रजन्म के आनन्द के समान प्रिय होगी।' पाश्चात्य आविष्कारक एडिसन (Addison) तो यहाँ तक कहता है"Better to die ten thousand deaths, than wound my honor." ' 'मेरी प्रतिष्ठा (कीर्ति) को क्षति पहुँचाने की अपेक्षा मेरा दस हजार बार मरना अच्छा है।" भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य मनीषियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है'कोतिर्यस्य स जीवाति' 'जिसकी कीर्ति विद्यमान है, वह पार्थिव देह से चले जाने पर भी जीवित है।' वास्तव में कीर्ति स्वर्ण या स्वर्णमूर्ति से भी बढ़कर है । जिसकी कीर्ति समाप्त हो गई, वह जीते हुए भी मृतकवत् है, उसकी नैतिक मृत हो गयी । इसीलिए कीर्ति को जरा भी आँच न आने देना चाहिए । इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक बोस्युइट (Bossuet) ने कीर्ति (प्रतिष्ठा) की आँख से तुलना करते हुए कहा है"Honor is like the eye, which cannot suffer the least impurity without damage." कीर्ति (प्रतिष्ठा) आँख के समान है जैसे आँख बिना क्षति के जरा सी भी गंदगी सहन नहीं कर सकती, वैसे ही कीर्ति भी अपवित्रता को नहीं सह सकती। अगर एक बार भी कीर्ति चली गई तो फिर उसे प्राप्त करना दुष्कर होगा। एक राजस्थानी कहावत भी है सूरत से कीरत बड़ी, बिना पंख उड़ जाय । सूरत तो जाती रहे, कीरत कदे न जाय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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