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________________ १०२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कीर्ति की तुलना संसार की किसी भी श्रेष्ठ वस्तु से नहीं दी जा सकती। पाश्चात्य दार्शनिक थोरो (Thoreau) के विचार में-- "Even the best things are not equal to their fame." ''सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ भी महान् पुरुषों की कीर्ति के तुल्य नहीं हो सकती।' निष्कर्ष यह है कि कीर्ति को पाने की लालसा चाहे न करें, किन्तु कीर्ति को नष्ट होने से अवश्य बचावें, अकीर्तिकर कार्य न करें। जीवन-वाटिका की सुरक्षा करने पर ही कीतिफल प्राप्त होंगे - मनुष्य की जिन्दगी एक वाटिका है । वाटिका को अच्छी स्थिति में सुरक्षित रखने के लिए उस पर चारों ओर से दृष्टि रखनी पड़ती है । कुशल माली इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि किस पौधे को पानी देना है, कहाँ निकाई की जाए ? किसे खाद दी जाए ? कौन सा फूल खिल रहा है ? कौन-सी मेंड़ टूट रही है ? उसी माली का बाग सुन्दर, पुष्पित, फलित एवं हराभरा रहता है। आसपास का वातावरण भी सुवासपूर्ण रहता है । इतना सब ध्यान न रखकर यदि फूहड़ माली वाटिका में केवल फल ही ढूँढता रहे या किसी आकर्षक फूल के पास ही बैठा रहे तो सारी वाटिका अव्यवस्थित हो जाएगी। फल भी उसे कहाँ से मिलेंगे, जबकि वह वाटिका की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध नहीं करेगा ? पौधे मुरझा जाएँगे, फूल सूख जाएँगे, न हरियाली रहेगी न सुवास । पतझड़ की तरह सारा वातावरण शुष्क, नीरस एवं निर्जीव-सा लगेगा। यही बात जीवनवाटिका के विषय में समझिए । जीवनवाटिका का माली यदि बाहोश और कुशल न होगा, वह सद्भावों के सुन्दर बीज बोकर सत्कार्यरूपी पौधे नहीं उगाएगा, सदाचाररूपी खाद नहीं देगा, चरित्रनिष्ठा की सिंचाई नहीं करेगा तो कीर्तिरूपी फल और यशरूपी पुष्प उसे कैसे प्राप्त होंगे ? यदि वह जीवनवाटिका की रक्षा काम-क्रोध, कुशील, अनाचार आदि से नहीं करेगा तो उसकी वाटिका कीर्तिरूपी फलों एवं यशःपुष्पों से हरीभरी कैसे रहेगी ? इसीलिए कीर्तिरूपी फलों की प्राप्ति के लिए जीवनवाटिका को सब ओर से सुरक्षा का ध्यान रखना आवश्यक है। कीर्ति यों सुरक्षित रहती है ! __मनुष्य सावधानी रखे तो अपनी जाती हुई कीर्ति को सुरक्षित रख सकता है । इस सम्बन्ध में मुझे न्यायशील बादशाह नौशेरवाँ के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना याद आ रही है । फारस के बादशाह न्यायी नौशेरवाँ ने एक बड़ा महल बनवाया था, और उसमें बड़ा सुन्दर बाग भी लगवाया था। उन्हीं दिनों रूमदेश का एक राजदूत फारस आया । उसने बादशाह के महल और बाग को देखने की इच्छा प्रगट की। एक फारसी सरदार उसे दिखलाने ले गया। राजदूत महल और बाग देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था, और प्रशंसा कर रहा था, तभी उसकी दृष्टि उस सुन्दर बाग के एक कोने पर खड़ी एक अत्यन्त गन्दी झौंपड़ी पर पड़ी, जिसने बाग के सुन्दर आकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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