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________________ १०० आनन्द प्रवचन : भाग ६ नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा । नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए आचारमहिट्ठिज्जा। अर्थात्-कीर्ति, गुणगान, धन्य-धन्य, वाह-वाह आदि शब्द एवं श्लाघा (प्रशंसा) व प्रशस्ति के लिए तप या धर्माचरण न करे। इसी प्रकार उच्चसाधकों के लिए भगवान महावीर ने फरमाया जसंकित्ति सिलोगं च, जा य वंदण-पूयणा । सव्वलोयंसि जे कामा तं विज्जं परिजाणिया ।' __ यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दना और पूजा तथा समस्त लोक में जो कामभोग हैं, उन्हें अहितकर समझकर त्यागना चाहिए। यह ठीक है कि कीर्ति की लालसा या कामना नहीं होनी चाहिए । दान, सेवा, परोपकार आदि सत्कार्यों के पीछे भी कीर्ति-कामना उनके वास्तविक फल को चौपट कर देती है। कीति-कामना एक प्रकार की सौदेबाजी है। परन्तु बिना कामना किये ही, अपने सत्कार्यों के फलस्वरूप कीति प्राप्त होती हो तो समझदार सज्जन उसे ठुकराना भी उचित नहीं समझते। ऐसे सत्कार्यशील पुरुषों ने कीर्ति के प्रतीकस्वरूप स्मारक के बदले अपने आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा दी है। कुछ ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए रूस के अलेक्जेंडर प्रथम ने फौज में बड़ी वीरता दिखाई । लोगों ने उसका स्मारक बनाने की इच्छा प्रकट की तो अलेक्जेंडर ने कहा- "मुझे स्मारक से शान्ति नहीं मिलेगी। यदि तुम अपने आप में वह शक्ति, संयम, चरित्र और तेजस्विता भरते हो, जिसने मुझे सर्वत्र विजयी बनाया तो वही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ स्मारक होगा।" जॉन पीटर तृतीय की स्वर्णमूर्ति बनाई जाने लगी। उसे पता चला कि उसके नाम पर स्मारक बनने जा रहा है तो उसने यह कार्य रोक दिया और कहा- 'मैंने जीवन भर जनहित की कामना की है, यदि तुम भी लोकसेवा की भावनाओं को हृदय में स्थान दोगे तो तुम सभी मेरी सोने-से अधिक कीमती प्रतिमूर्ति बनोगे।" एक बार नैपोलियन बोनापार्ट की मूर्ति बनाई जाने लगी तो उसने हँसते हुए कहा--"मैं अपने पीछे उन परम्पराओं को जीवित रखना पसन्द करता हूँ, जो वीरता और स्वाधीनता के भाव अक्षुण्ण रखती हैं । स्मारक को मैं अपनी जेल समझता हूँ।" ये हैं कीर्ति के प्रति अनासक्त पुरुषों द्वारा कीर्ति के मूलस्रोत की परम्परा को अक्षुण्ण रखने की प्रेरणाएँ ! कीति को आँच न लगे, ऐसे कार्य करें कीर्ति की कामना या आकांक्षा न रखने पर भी मनुष्य का अन्तर्मन इतना तो १ सूत्रकृतांग ६।२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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