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________________ ८६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ विविध विषय - सुखों को प्राप्त करने की जिसकी लालसा नहीं रहती, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो चुके हैं, वही स्थिरबुद्धि मुनि ( मननशील पुरुष ) है । जो सर्वत्र सभी परिस्थितियों में अनासक्त रहता है, उन उन शुभ और अशुभ, प्रिय और अप्रिय के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है, न द्वेष (घृणा) करता है । ऐसी स्थिति जिसे प्राप्त है, उसकी बुद्धि स्थिर है । जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से सिकोड़ लेता है, वैसे ही जो पुरुष अन्तर्बाह्य सभी इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से चारों ओर से खींच ( समेट लेता है, समझ लो, उसी की प्रज्ञा आत्मा में स्थित है । उन सब इन्द्रियों को संयम में रखकर युक्त (समचित्त) होकर जो परमात्मा में लीन हो जाता है, इस तरह जिसकी इन्द्रियाँ वश में हो गईं, उसकी बुद्धि स्थिर हो गई । राग-द्वेषरहित इस निर्मलता से प्रसन्नता प्राप्त होने पर उस संयतेन्द्रिय पुरुष के समस्त दुःखों का नाश हो जाता है । जिसका चित्त ऐसी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है, उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है । निष्कर्ष यह है कि गौतम महर्षि ने स्थिरबुद्धि के लिए जिन दो विशिष्ट गुणों की ओर संकेत किया है, गीताकार उन्हीं दो गुणों को प्राप्त करने के स्रोत के रूप में राग, द्वेष, काम, क्रोध, भय, मोह, आसक्ति आदि के त्याग को आवश्यक बताते हैं । गौतम कुलककार एवं गीताकार दोनों स्थिरबुद्धि प्राप्त करने के लिए विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक बताते हैं, परन्तु उन्होंने कहीं यह नहीं कहा कि धन से स्थिरबुद्धि प्राप्त होती है । सचमुच भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ का सिद्धान्त प्लेटो के परिपूर्ण बुद्धि के सिद्धान्तों से मिलता-जुलता है । स्थितप्रज्ञ के लक्षण संक्षेप में इस प्रकार है - ( १ ) समस्त मनोकामनाओं का त्याग, (२) शुद्ध आत्मा में सन्तुष्ट, (३) सुख-दुःख में सम, ( ४ ) शुभाशुभ या प्रियाप्रिय प्राप्त होने पर अनासक्त, (५) तृष्णा - क्रोध - भयमुक्त, ( ६ ) सम्पूर्ण इन्द्रियविजय, (७) रागद्व ेश से वियुक्त, प्रसन्न एवं शान्त । इसी स्थितप्रज्ञको आचारांग सूत्र में स्थितात्मा ( ठिअप्पा ) कहा है । जो भी हो, इस प्रकार की स्थिरबुद्धि वाला जीवन ही श्रेष्ठ जीवन कहलाता है । वास्तव में स्थिरबुद्धि परिपूर्णबुद्धि होता है । उसकी बुद्धि का सर्वागीण विकास हो जाता है । पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ( Plato) इसे परिपूर्ण बुद्धि कहकर, इसके चार विभाग मानता है Perfect wisdom hath four parts, viz; wisdom the principle of doing things aright, justice, the principle of doing things equally in public and private; fortitude, the principle of not flying from danger but meeting it, and temperance, the principle of subduing desires and living moderately." Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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