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________________ सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : २ ये हुए पुत्र के आने के बारे में पूछा तो मैंने उसके पानी के घड़े फूटे देख पुत्र की मृत्यु होना बताया तो वह मेरे पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गई, लेकिन इसने पुत्रमिलन और अपार धन कमाने की संभावना बताई तो वह बात हूबहू मिल गई । इसलिए इसे तो भेंट, सम्मान और भोजन मिला। मगर मुझे तो अपमानित होना पड़ा । यह सब आपके पक्षपात के कारण ही तो हुआ ।” विनीत शिष्य से गुरु ने बुढ़िया को कही हुई बात के सत्य मिलने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मैंने ज्योतिष शास्त्र और स्वरोदय के सिद्धान्त तथा अनुमान से फलादेश बताया है । यह सब आप ही की कृपादृष्टि से हुआ है । आपके श्रीचरणों का स्मरण करके ही मैंने उत्तर दिये थे 1 गुरु ने अविनीत शिष्य से कहा -- " घड़ा फूटते ही तूने उसके पुत्रमरण की अशुभ बात कह दी, यह किस शास्त्र में लिखा है, फिर तुझे बोलने का ही होश नहीं है, तब तेरी बुद्धि सूक्ष्म और स्थिर कैसे होती ? तेरी अविनीतता ही तुझे स्थिरबुद्धि से वंचित कर देती है । तू अपने उपकारी गुरु के प्रति भी मिथ्या दोषारोपण कर रहा है। भला कैसे सद्बुद्धि प्राप्त होगी तुझे !” स्थितप्रज्ञ - लक्षण : भगवद्गीता में हाँ, तो मैं कह रहा था कि स्थिरबुद्धि के लिए दो मुख्य गुण आवश्यक है, जिन्हें भगवद्गीता (अध्याय २) में विस्तृत रूप से अनेक गुणों के रूप में 'स्थितप्रज्ञ ' के लिए बताए हैं प्रजहाति यदा कामान्, सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५।। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृह । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मु निरुच्यते ॥ ५६॥ ८५ यः सर्वत्रानाभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७॥ यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्यप्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥ तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठति ॥ ६५॥ अर्थात् — हे अर्जुन ! जब मनुष्य अपनी मनोगत समस्त वासनाओं - कामनाओं को छोड़ देता है और शुद्ध आत्मा में स्वयं सन्तुष्ट हो जाता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है । दुःखों के प्राप्त होने पर जिसका मन उद्विग्न-व्याकुल नहीं होता और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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