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________________ ८४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ के लिए बुढ़िया को मना लिया कि वहाँ पर यह कुछ न बोले । अविनीत के प्रति बुढ़िया की नफरत को देखकर उसके तन-बदन में आग लग गई । मन ही मन सोचा —'देख लिया गुरु का पक्षपात ! इसे खूब अच्छी तरह पढ़ाया है और मुझे नहीं । तभी तो इसकी बताई हुई सभी बातें मिल जाती हैं और मेरी एक भी बात नहीं मिलती । इस बार जाते ही मैं गरु की पूरी खबर लूंगा।' यों अनेक प्रकार की मिथ्या कल्पनाएँ करने लगा। दोनों छात्र बुढ़िया के यहाँ भोजन करने गए। वुढ़िया ने अपने पुत्र के सामने भी इस छोटी उम्र के विनीत छात्र की प्रशंसा की और कहा-यह बहुत ज्ञानी है । तेरे शुभागमन की बात इसी ने बतलाई थी। बुढ़िया ने बहुत प्रेम से भोजन कराया। इसके पश्चात् दोनों छात्रों ने नगर में जाकर गुरुजी द्वारा बताया हुआ काम निपटाया। वहाँ भी विनीत छात्र का सिक्का जम गया । आखिर दोनों छात्र अपने गाँव को वापस लौटे । गुरु के पास आते ही प्रणाम करना तो दूर रहा, अविनीत छात्र क्रोध में आकर गुरुजी से झगड़ा करने लगा। कहने लगा- "मुझे इस बार भली भाँति पता चल गया कि आपने पढ़ाने में पूरा पक्षपात किया है । इसे आपने अच्छी तरह पढ़ाया पर मुझे नहीं पढ़ाया। मेरा इतने वर्षों का परिश्रम बेकार गया । अच्छा समय आने दो, मैं आपकी पूरी खबर लूगा ।" यों अटसंट बकने लगा। अविनीत छात्र की आकृति क्रोध से लाल हो गई थी। ओठ काँपने लगे। गुरु ने जैसे-तैसे समझाकर शान्त किया। फिर पूछा-वत्स ! ऐसी क्या बात हो गई, जिससे तुम गर्म हो रहे हो । मैंने तुम दोनों को एक साथ, एक ही पाठ पढ़ाया है। फिर भी बताओ, कौन सी आघातजनक घटना हो गई ?" अविनीत छात्र ने पहली घटना सुनाते हुए कहा-मुझसे जब इसने पूछा कि ये पैर किसके हैं ? तब मैंने स्वाभाविक रूप से कहा-इतने बड़े पैर हाथी के ही हो सकते हैं । पर इसने हथिनी के, फिर उसे कानी, उस पर सवार रानी, गर्भवती और आसन्नप्रसवा ये सब बातें वताईं, जो सच निकलीं। क्या यह पढ़ाई में अन्तर नहीं है ? दूसरे विनीत शिष्य से जब गुरुजी ने ऐसा बताने और सारी बातें सच निकलने का कारण पूछा तो उसने विनयपूर्वक सभी बातें कारण सहित बताईं और अन्त में गुरुजी का आभार मानते हुए कहा- "गुरुदेव ! यह सब आपकी ही कृपा का फल है।" गुरु ने अविनीत छात्र से पूछा- “क्यों भाई ! क्या ये सब बातें पुस्तक में लिखी हुई थीं, जो इसने बता दी ? ऐसा नहीं है। वस्तुतः यह विनयी, नम्र और गुरुभक्तिपरायण है, जिससे इसकी बुद्धि सूक्ष्म, प्रखर और स्थिर है, जबकि तू उद्दण्ड, वाचाल, छिन्द्रान्वेषी और गुरुविमुख है, इसलिए एक साथ पढ़ने पर भी तेरी बुद्धि स्थूल ही रही।" गुरु की बात को काटते हुए अविनीत शिष्य ने कहा- “गुरुजी ! आगे वाली बात ने तो आपकी पक्षपातता पूरी तरह सिद्ध कर दी। एक बुढ़िया ने अपने परदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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