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________________ सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : २ ८७ "पूर्ण बुद्धिमत्ता के चार विभाए होते हैं, जैसे—(१) बुद्धि-सब बातों को यथार्थ रूप से करने का सिद्धान्त, (२) न्याय -व्यक्तिगत और सार्वजनिक सब बातों को समान रूप से करने का सिद्धान्त, (३) सहनशीलता, धैर्य या साहसखतरे से न भागने, बल्कि उससे मिलने (भिड़ने) का सिद्धान्त और (४) उत्साहकामनाओं (इच्छाओं) का त्याग करना और मर्यादित रूप से रहना ।" इन सब विशेषताओं को देखते हुए निःसन्देह कहा जा सकता है कि स्थिरबुद्धि मानव-जीवन में पद-पद पर अनिवार्य है । उसके बिना जीवन के विशिष्ट कार्य, चाहे वे लौकिक हों या लोकोत्तर, अधूरे ही रहते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में स्थिरबुद्धि की आवश्यकता रहती है। बन्धुओ ! मैं इस गहन जीवनसूत्र पर बहुत ही गहराई से विस्तृत रूप में कह गया हूँ। आइए, हम भी परम कृपालु वीतराग प्रभु से ऐसी ही स्थिरबुद्धि प्राप्त होने प्रार्थना के साथ स्वयं प्रयत्न करें रहे स्थिर मम बुद्धि हर क्षण, ऐसा करो कृपा का दौर । करो कृपा का दौर, और नहीं, चाहूँ अर्थ का छोर ॥ध्र व।। जिससे बना दे स्वर्ग पृथ्वी को, बढ़े मोक्ष की ओर। रत्नत्रय की सामग्री ले, पाएँ प्रभु सिरमौर ॥रहे०॥ प्रति प्रवृत्ति में हरदम हर पल रहे सुमति का जोर। कुमति न आए निकट कभी मम, जाऊँ मैं जिस ठौर ॥रहे। महर्षि गौतम ने स्थिरबुद्धियुक्त जीवन का सुन्दर नुस्खा हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है- "बुद्धि अचंडं भयए विणीयं ।" आप इसे हृदयंगम करें और जीवन में अपनाएँ, तभी जीवन सार्थक होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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