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________________ बुधजन होते क्षान्ति-परायण ७३ हैं । जिनसे बाद में केवल पश्चात्ताप करना ही रह जाता है। कई बार उद्विग्न लोग प्रतिकूलता के निमित्तों पर उबल पड़ते हैं। ऐसे असहिष्णु लोग आवेश में आकर गाली-गलौज, मारपीट, कत्ल, फौजदारी आदि कुकृत्य कर बैठते हैं। किन्तु बाद में इनकी प्रतिक्रिया में अधिक हानि उठानी पड़ती है। अतः इन सबका स्थायी और मनःशान्तिदायक उपाय है हर हाल में मस्त रहना । प्रत्येक परिस्थिति में अपना एडजस्टमेंट कर लेना; सहिष्णु बन कर भगवत् प्रेम का चिन्तन करना । इसी से मनोभूमि की स्वच्छता बनी रहती है कि मनुष्य दुःखों के लिए भी वैसे ही कटिबद्ध रहे, जैसे सुखों के लिए हरदम तैयार रहता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि जानबूझ कर दुःखों विपत्तियों या प्रतिकूलताओं को बुलाया जाए, या उन्हें हटाने का न्यायोचित प्रयत्न न किया जाए। ऐसा तो करना होता ही है। यह तो मनुष्य का कर्तव्य है, मगर अपनी बुद्धिमत्ता से तथा न्यायनीतियुक्त प्रयत्नों से अनेक आपत्तियों को हटा लेने पर भी, लाख प्रयत्न करने पर भी अपूर्णता के कारण दुःखों या विपत्तियों को हटाने का प्रयत्न पूर्णतया सफल न होगा। कहीं न कहीं अपूर्णता रह ही जाएगी किसी न किसी मात्रा में अभावों या कष्टों का सामना करना ही पड़ेगा। पूर्वकृत दुष्कर्मों के उदयवश, मानवजाति के सामूहिक कर्मवश कभी-कभी ऐसी आकस्मिक विपत्तियाँ सामने आती रहती हैं जैसे भूकम्प, बाढ़, दुभिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध, तूफान, महामारी, बीमारी, विश्वासघात, मृत्यु, आग, दुर्घटना आदि, जिनको नियन्त्रित करना मनुष्य के बूते से बाहर की बात होती है । व्यक्ति अपनी पूरी बुद्धिमानी के साथ इन्हें पूर्णतया टाल सके या इनसे बचाव कर सके, ऐसा प्रायः कम ही होता है। ऐसी स्थिति में यदि वह अपनी मनोभूमि को पहले से ही दुःखों से लड़ने, उन्हें सहने, सन्तुलन बिगड़ने न देने स्वस्थ रखने का अभ्यस्त होता है तो उसे कठिनाई के समय भी मानसिक अशान्ति नहीं होती। सहिष्णु लोग ही पूर्वोक्त परिस्थितियों में आनन्द से अपना जीवनक्रम चलाते हैं। ऐसे भी सहिष्णु लोग हैं, जो शरीर के कमजोर हैं, कई बीमारियों से पीड़ित हैं फिर भी शान्तिपूर्वक दिन काटते हैं। ऐसे भी लोग हैं,जिनके पास पूंजी के नाम पर कुछ भी नहीं होता, केवल शरीर से मजूरी करके गुजारा चलाते हैं, फिर भी हँसते-खेलते अपनी जिन्दगी व्यतीत करते हैं । उन असहिष्णु मूढ़ व्यक्तियों को यह सोचना चाहिए कि हमसे भी बहुत गिरी, विपन्न हालत में पड़े हुए लोग अपने दिन हँसी-खुशी से काट रहे हैं, तब हम उनसे कहीं अच्छी परिस्थिति में होते हुए भी दुःखी अशान्त और उद्विग्न रहते हैं, इसका कारण वे सांसारिक परिस्थितियाँ नहीं, वरन् आन्तरिक दुर्बलताएँ हैं । __ कष्ट और विपत्तियाँ संसार में हैं, परन्तु उनका प्रभाव इतना तीव्र नहीं है, जितना दुर्बल मनोभूमि के लोग महसूस करते हैं। ऐसा कोई कष्ट इस धरती पर नहीं है, जिसे धैर्यवान सहिष्णु व्यक्ति बिना दुःख महसूस किये सहन न कर सके । धर्मपालन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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