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बुधजन होते क्षान्ति परावण
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अधिकार है ।" हैदर की सारी कटुता धुल गई। उस दिन से वह सज्जन बन गया । यह छात्र, जो सेवादल का नेता था, वही आगे चलकर भारत का महान् नेता सुभाष चन्द्र बोस के नाम से विख्यात हुआ ।
क्या सहिष्णुता का यह कार्य वीरता के बिना हो सकता है ? कदापि नहीं । साहित्यकारों ने वीररस के विवेचन में एक भेद क्षमावीर बताया है । तीर्थंकरों के लिए शास्त्र मे कहा गया है - 'खंतिसूरा अरिहंता । क्षमावीर अपने प्रति किये गए अपकार को भूल जाता है । वह अपराधी को क्षमा कर देता है । यदि कोई दुर्बल व्यक्ति किसी बलवान से कहे कि 'जाओ तुम्हें अमुक अपराध के लिए क्षमा करता हूँ, तो उसका यह कथन हास्यास्पद ही कहलाएगा ।
एक बार फिल्म अभिनेता ओमप्रकाश विश्वविख्यात पहलवान दारासिंह से कुश्ती लड़ने के लिए अखाड़े में उतरे। उतरे क्या लोगों ने उन्हें उकसा कर उतार दिया। लेकिन पहलवान की पहली झपट भी वह न झेल पाए। चारों खाने चित्त गिर पड़े। धूल झाड़ते हुए उठे और 'जा तुझे क्षमा किया, वरना हड्डी - पसली एक कर देता कहते हुए वे अखाड़े से बाहर निकल आये। उनके इस कथन पर दर्शकों की हँसी का फव्वारा छूट गया । राष्ट्रकवि रामधारीसिंह 'दिनकर' ने ठीक ही कहा है
“क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो । उसको क्या, जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो ।
सचमुच सहिष्णुता एक प्रकार की तपस्या है, एक प्रकार की वीरता है, जो साहसहीनों, कायरों और प्राणमोहियों में सहसा नहीं आ सकती है । सहिष्णुता का व्यापक पैमाने पर प्रयोग महात्मा गांधीजी ने अफ्रीका और हिन्दुस्तान में किये थे । उनके चमत्कारी परिणाम विश्व के समक्ष आए। उनकी सहिष्णुता का अचूक प्रभाव ब्रिटिश शासकों पर भी पड़ा । अनेक प्रबुद्ध अंग्रेज उनके मित्र, प्रशंसक, सहयोगी और भक्त बन गए । सभ्य और सुसंस्कृत जातियों में सहिष्णुता के संस्कार प्रचुर मात्रा में देखने को मिलते हैं । असहिष्णुता, असंस्कारिता, असभ्यता और नादानी की द्योतक है । जो असभ्य, बर्बर एवं जंगली जातियाँ है, वे असहिष्णु हैं । प्रायः उनमें खून का बदला खून से लिया जाता है । वे किसी व्यक्ति को सुधरने का अवकाश नहीं देते । परन्तु सुसंस्कृत व्यक्ति सदैव सहिष्णु होता है ।
आध्यात्मिक विकास के लिए सहिष्णुता आवश्यक
आध्यात्मिक विकास के लिए सहिष्णुता का गुण अनिवार्य है । क्रोध अभिमान ये दोनों दुर्गुण मनुष्य को असहिष्णु बना देते हैं । परन्तु जब व्यक्ति सबको आत्मीय मानने लगता है तो किसी भी व्यक्ति पर क्रोध या अभिमान करने का कोई कारण नहीं होता । कबीर का यह दोहा उसका जीवन सूत्र बन जाता है
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