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________________ बुधजन होते शान्ति-परायण ६७ व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में भी सहिष्णुता अनिवार्य व्यक्तिगत जीवन में तो सहिष्णुता आवश्यक है ही। व्यक्तिगत जीवन में जो असहिष्णु होगा; उसे पद-पद पर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा। वार्तालाप, तर्कवितर्क एवं बहस के दौरान असहिष्णु हो जाने वाले व्यक्ति को निन्दा का पात्र बनना पड़ता है। बुरे से बुरा व्यक्ति हो, उसमें भी अच्छाई के अंश तो विद्यमान रहते ही हैं। सहिष्णु व्यक्ति यदि संयत ढंग से उसे समझाए-बुझाए और प्रेम से आवश्यक असहयोग या विरोध करे तो उसकी बुराइयाँ दूर कर सकता है। असहिष्णुता की प्रतिक्रिया में तो व्यक्ति और अधिक उद्धत हो जाता है । बदला लेने की या प्रतिहिंसा की शक्ति न होने से अनिच्छापूर्वक सहन कर लेना सच्ची सहिष्णुता नहीं है। यदि मन में प्रतिहिंसा की भावना बनी रही तो आपकी सहिष्णुता सही सहिष्णुता नहीं, निर्बलता या कायरता ही होगी और प्रति हिंसा की भावना अन्दर ही अन्दर आपके चित्त को विषाक्त बना देगी। सहिष्णुता कायरता नहीं, वीरता है ! किसी व्यक्ति में कोई कमजोरी या चारित्रिक दुर्बलता हो तो उसके प्रति सहिष्णु बनकर ही उसे दूर की जा सकती है। सहिष्णुता होने से व्यक्ति की दोषदुर्बलता को मिटाकर उसे अच्छाइयों की ओर प्रेरित किया जा सकता है, उसमें नैतिक दृढ़ता भरी जा सकती है। समाज में हितैषी लोग एक दूसरे की खूबियों और अच्छाइयों के सहभागी ही नहीं होते, वे एक दूसरे की कमजोरियों के प्रति भी इसलिए सहिष्णु रहते हैं, कि धीरे-धीरे समझा-बुझाकर उनकी वे कमजोरियाँ दूर की जाएँ। इसलिए सामाजिक जीवन में तो सहिष्णुता के बिना चल ही नहीं सकता, क्योंकि उसके बिना समाज में स्नेह-भाव, आत्मीयता एवं मैत्री बढ़ नहीं सकती। परन्तु इस सहिष्णुता का मतलब जी-हजूरी, कायरता या दुर्बलता नहीं है, और न किसी के दोषों को ढंकना या उनके प्रति आँखमिचौनी करना है। वह एक प्रकार की हृदय की विशालता और दूसरों को सुधारने की शक्तिशाली उदात्त भावना है, जिसमें मानवीय रुचियों, इच्छाओं और प्रयोजनों की विविधता की स्वीकृति तथा सत्यं शिवं सुन्दरम् के प्रति अविचल आस्था का समावेश रहता है । जिसके प्रति व्यक्ति उदार सहिष्णुता का रुख रखता है, वह अधिक समय तक उपेक्षा भाव बनाये नहीं रख सकता, वह भी उसके अनुकूल हो जाता है। एक बार कुछ व्यक्ति स्वामी दयानन्द से किसी विषय पर विचार-विमर्श करने आए । अपनी मनसुहाती न सुन कर वे लोग खीज उठे और रोष में आकर बोले"चलो, इस दुष्ट का मुंह भी देखना पाप है।" स्वामीजी के कुछ शिष्य भी उत्तेजित हो उठे। परन्तु उन्होंने आवेश में न आकर उन्हें शान्त किया और आगन्तुक महानुभावों से बोले- "भाई ! मुंह देखना पाप है तो आप लोगों के लिए पर्दे की व्यवस्था Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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