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________________ ६६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ थोड़ी देर के लिए मान लें कि सहन करना कोई गुण नहीं है, परन्तु असहिष्णु होना तो महज एक घोर अपराध है। असहिष्णुता वह भयंकर आग है, जिसमें जलकर परिवार, संस्था, जाति, समाज, राष्ट्र आदि खाक हो जाते हैं। जिसके कारण स्वर्गापम वसुन्धरा घोर नरककुण्ड बन जाती है। कुछ व्यक्तियों की आपसी असहिष्णुता के कारण देश के देश तबाह हो जाते हैं। ___ रावण इतना विद्वान् होते हुए भी सहिष्णु नहीं था। अपने अतिरिक्त किसी और की विचारधारा और जीवन पद्धति उसकी दष्टि में ठीक नहीं थी। यही कारण है कि वैदिक रामायण के अनुसार उसने इस असहिष्णुता के कारण ऋषियों का उत्पीड़न किया। इस कारण उसके प्रति चारों ओर से असम्मान, तिरस्कार और घृणा की भावना दृढ़ होती गई। रावण की असहिष्णुता उसके अहंकार की मात्रा को बढ़ाया। यही अहंकार उसके पतन का कारण बना । असहिष्णु सबल हो तो वह अहंकारी बनता है, यदि वह निर्बल हो तो मन ही मन कुढ़ता, जलता भुनता रहता है । क्षुब्ध और अशान्त बना रहता है। वह अनेक मानसिक विकृतियों का शिकार बनता जाता है। विश्व में किसी एक व्यक्ति की कभी चल ही नहीं सकती, न ही किसी एक ही विचार की सर्वमान्य स्वीकृति हो सकती है। अपने से भिन्न विचार और इच्छा या व्यवहार को सहने की मनःस्थिति न रही तो प्रतिक्षण क्लेश, अशान्ति, कटुता ही मन को कचोटती रहेगी। _ सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि असहिष्णुता के इन दुष्परिणामों को देखते हुए भी अधिकांश लोगों की आँखें अभी तक खुल नहीं पा रही हैं। वे जरा भी नहीं सोचते कि यह क्षणभंगुर नाशवान शरीर क्या इसीतरह कलह, ईर्ष्या और द्वेष की अग्नि में जलाने के लिए है ? क्या यह देव दुर्लभ-मानव तन इन्हीं क्षुद्र झगड़ों-बखेड़ों में लगाकर सारा जीवन अशान्त बनाने के लिए है ? क्यों वे इस मानव देह रूपी अमूल्य निधि का दुरुपयोग कर रहे हैं। क्यों इस आनन्दमय संसार को प्रेम पुष्पों से परिपूरित नन्दनवन न बना कर असहिष्णुता की ज्वाला से नरक बनाने पर तुले हैं ? जो व्यक्ति यह सोचता है कि अमुक व्यक्तियों ने उसका अपमान या अनादर किया, उसको कष्ट पहुँचाया, अतः मुझे उसका बदला लेना चाहिए, वह व्यक्ति स्वप्न में भी मानसिक शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिसमें प्रति हिंसा की भावना भरी हुई है जो बदले की भावना को लेकर अस्थिर है, वह क्षुब्ध है। ऐसे असहिष्णु व विकारी हृदय में सच्ची शान्ति कैसे रह सकती है ? घृणा और शत्रुता के, असहिष्णुता एवं विक्षोभ के भाव जितनी हानि प्रतिपक्षी को पहुंचाते हैं, उससे अधिक वे अपनी हानि करते हैं । आग जहाँ रहती है, वहाँ पहले उसी को जलाती है। दुर्भाव रखने वाला जिनके प्रति दुर्भाव रखता है, उनसे अधिक अपने लिए हानि उठाता है। यदि संघर्ष भी आवश्यक हो तो उदारता और सहिष्णुता की भाबना रखकर करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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