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________________ बुधजन होते क्षान्ति-परायण धर्मप्रेमी बन्धुओ ! पिछले प्रवचनों में मैंने आपके समक्ष अर्थपरायण लुब्ध का एवं कामपरायण मूढ़ की जीवनवृत्तियों का विवेचन प्रस्तुत किया था। आज गौतमकुलक के तीसरे जीवन सूत्र के सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना है। लुब्ध और मूढ़ के जीवन की चर्चा पर से इतना तो आप जान ही गये होंगे कि ये दोनों जीवन निकृष्ट हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति करने वाले न होने से ये जीवन उपादेय नहीं हो सकते । इन दोनों प्रकार के जीवनों का अनुसरण करना खतरे से खाली नहीं हैं । जो लोग क्षणिक, विनाशी और लुभावने सांसारिक पदार्थों पर लुब्ध हो कर अपने विवेक को खो बैठते हैं या जो मूढ़ क्षणिक सुखों से आकर्षित होकर मोहक कामभोगों का सेवन करते हैं, उन्हें भविष्य में अनेक दुःखों का सामना करना पड़ता है। जो बुद्धिमान होते हैं, वे दूरदर्शी बनकर अपने हिताहित का, कर्तव्याकर्त्तव्य का, हेयोपादेय . का और परिणाम का विचार एवं विवेक करते हैं। वे बुद्धिमान होते हैं । बुद्धिमान प्रत्येक कदम संभल-संभल कर उठाता है। वह कोई भी ऐसा कार्य नहीं करता, जिससे बाद में पछताना पड़े। बुद्धिमान और शान्ति बुद्धिमान उसे नहीं कहते, जो बात-बात में गुस्सा हो जाता हो, तन जाता हो, दूसरों से झगड़ा करने को तैयार हो जाता हो, या अपने से प्रतिकूल विचार और क्रिया को देखते ही भड़क उठता हो, जरा-से मतभेद को लेकर दूसरे से द्वेष और विरोध करने लगता हो । अंग्रेजी में बुद्धिमान को wise (अक्लमंद) कहते हैं। बुद्धिमान की परिभाषा करते हुए William Relf Inge (विलियम राल्फ इन्गे) ने कहा है- "The wise man is he, who knows the relative value of things." "बुद्धिमान वह है, जो प्रत्येक वस्तु से सम्बद्ध वास्तविक मूल्य को जानता है। बुद्धिमान दूरदर्शी होता है।" वह प्रत्येक प्रवृत्ति या वस्तु के वास्तविक तह तक पहुँच जाता है। वह कोई भी ऐसा आचरण नहीं करता, जिससे उसकी या समाज की शान्ति खतरे में पड़ जाय, जीवन के स्वाभाविक सिद्धान्तों को ठेस पहुँचे । इसलिए यह कहना ठीक होगा कि बुद्धिमानी भूतकाल की समस्त बुद्धिमत्ताओं का निचोड़ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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