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________________ होते मूढ नर कामपरायण एक जैन कथा है । एक राजा को आम खाने का बहुत शौक था । आम्रफलों के अधिक खाने से उसे एक भयंकर रोग हो गया । बहुत इलाज कराये, पर व्यर्थ; क्योंकि वह दवा के साथ-साथ आम खाकर कुपथ्य करता रहता था । बचने की कोई आशा न रही। एक बार एक कुशल वैद्य आया, उसने आम न खाने की शर्त रखी । राजा ने स्वीकार की । वैद्य ने उपचार किया, उससे राजा स्वस्थ हो गया । वैद्य ने चेतावनी देदी कि जरा-सा भी आम खाना आपके लिए विषतुल्य है ।" कुछ दिन तक तो राजा ने कुपथ्यसेवन नही किया । अतः वह स्वस्थ रहा । एक दिन वह भ्रमण करता-करता आम्रवन में पहुँच गया। पेड़ों पर पके हुए पीले-पीले आम राजा ने देखे तो खाने के लिए जी ललचाया । सोचा- - " अब तो मैं स्वस्थ हूँ । सिर्फ एक आम खाने से कुछ नही होगा ।" अतः वह अपनी जीभ पर नियन्त्रण न रख सका । आम खा ही लिया । फलतः बीमारी पुनः भड़क उठी और उदरशूल के कारण राजा की तत्काल मृत्यु हो गई, रोगी दशा में ही नहीं, स्वस्थ दशा में भी विभिन्न रसों-तीखे, कड़वे, खट्टे, मीठे, कसैले चरचरे आदि का भी विभिन्न प्रकार का परिणाम होता है। अधिक मीठा खाना मधुमेह आदि रोगों का कारण होता है, अधिक खट्टा भी शरीर के लिए हानि कारक है, इससे एसिडीटी (अम्लता) बढ़ जाती है, जिससे हाई ब्लडप्रेसर हो जाता है । बर्फ, रेफ्रिजेटर या आइसक्रीम का ठन्डा पानी भी पाचन क्रिया को अत्यन्त कमजोर कर देता है | अधिक खटाई आँखों के लिए नुकसानदेह है। एक बालक की आखें दुखने आईं । उसे कच्चे आम का अधिक शौक था। इलाज होने पर आँखें कुछ ठीक हो गईं । लेकिन मौका पाते ही आँखें बचा कर घर से निकल पड़ा । बाग में जाकर उसने कच्चा आम खा लिया । फलतः आँखों की बीमारी बड़े जोर से उभर आई । बहुतेरे इलाज कराए, लेकिन आँखें बिलकुल ठीक न हो सकीं। अपनी स्वाद- लोलुपता का दण्ड उसे नेत्रज्योति - विहीन होकर चुकाना पड़ा । ५७ आप चण्डप्रद्योत की कामलोलुपता की दारुण कहानी सुन चुके हैं । इस सम्बन्ध में और अधिक कहने की आवश्यकता मैं नहीं समझता । इतना ही कहूँगा कि आप कामभोगों में आसक्त होकर अपने आपको मूढ़ों की गणना में न गिनाएँ, जब भी काम भोगों के लुभावने प्रसंग आए आप अपने आपको बचा कर बुद्धिमत्ता का परिचय दें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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