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होते मूढ नर कामपरायण
५५.
वहाँ से मरकर वह महाबल राजा के पुरोहित का पुत्र हुआ। जवान होते ही वह अत्यन्त गायन रसिक बन गया । एक दिन नगर में डूमों की एक संगीतमंडली आई। राजा उनसे गीत सुन रहा था। राजा ने पुरोहित पुत्र से कहा- मुझे नींद आ जाए तो इनका गीत बन्द करा देना। थोड़ी ही देर में राजा की आँख लग गई, परन्तु गीतासक्त पुरोहित पुत्र ने गायन बन्द नहीं कराया।' कुछ ही देर बाद राजा एकदम चौंक कर उठा, देखा तो गायन बदस्तूर चालू है। अत: राजा ने कोपायमान होकर पुरोहित पुत्र के कानों में गर्मागर्म खौलता हुआ तेल डलवा दिया । पुरोहित पुत्र असह्य वेदना से छटपटा कर वहीं मरण-शरण हो गया । यह है श्रवणेन्द्रिय की विषयासक्ति का नतीजा । श्रोत्रेन्द्रिय पर वर्तमान युग में बड़े-बड़े शहरों में कल कारखानों, वाहनों या रेडियो वगैरह के होने वाले भयंकर शोर से दवाब पड़ता है। कान के पर्दे फट जाते हैं। शब्दों से मस्तिष्क में उत्तेजना पैदा होती है। अपशब्द क्रोध को, सुरीले मोहक शब्द कामराग भड़काते हैं।
रूप का आकर्षण कामासक्ति भड़काता है विजयपुर नगर का राजा विश्वम्भर, मंत्री कुशलमति और नगर सेठ यशोधर तीनों परस्पर मित्र थे। तीनों के एक-एक पुत्र हुआ। जब वे तीनों जवान हो गए, तब एक मंत्री ने नगर सेठ से कहा- "मित्र ! तुम्हारे पुत्र की दृष्टि में विकार है। वह राजदरबार में आते समय रास्ते में अन्तरःपुर की महिलाओं के सामने ताक-ताक कर देखता है, रास्ते चलता भी गर्दन उठाकर स्त्रियों के सामने देखता है । आगे चल कर यह चारित्रभ्रष्ट हो जाएगा। अतः इसे ऐसा करने से रोकना ।" नगर सेठ ने अपने पुत्र को बहुत समझाया, पर उसने एक न मानी । अपनी कुटेव को छोड़ता नहीं था। एक दिन सेठ के लडके को स्त्रियों के प्रति काम-राग दृष्टि से देखते हुए रोका और वहाँ से खदेड़ दिया, राजदरबार में उसका प्रवेश बन्द कर दिया। सभी लोग अब उसे 'चपलाक्ष' कहने लगे । एक दिन उसके पिता ने किसी वणिक पुत्र के साथ उसे परदेश भेजा; पर वहाँ भी वह सारे शहर में भटकता फिरता, नेत्रविकारवश होकर कुंए बावड़ी, सरोवर आदि पर जाकर स्त्रियो को देखता रहता । एक दिन किसी प्रासाद के पाषाण पर अंकित दिव्यरूप वाली पूतली देखी तो मोहवश उस पर आसक्त हो गया। उसकी याद में खाना पीना सब भूल गया । अतः बनिये ने वह पुतली कहीं छिपा दी और वैसी ही वस्त्रमयी पुतली बनाकर उसे उठाकर डेरे पर लाया । अब श्रेष्ठी पुत्र कुमार उसी पुतली पर आसक्त होकर देखता, उसे गहने पहनाता । एक दिन बनिया और श्रेष्ठीपुत्र दोनों वहाँ का व्यापार समेट कर पुतली सहित अपने नगर की ओर चल पड़े। रास्ते में लुटेरों ने उन्हें लट लिया, साथ में वह पुतली भी ले गए। अब तो श्रेष्ठीपुत्र पुतली के वियोग में पागल होकर जंगल में घूमने लगा । फिरता-फिरता बह विजयपुर आया। वहाँ के उद्यान में राजरानी को खेलते देख बार बार उसकी ओर देखने लगा। अतः राजपुरुष ने उसे मार डाला । मरकर वह पतंगा हुआ । एक दिन आग में पड़ कर वह भस्म हो गया । यों अनेक जन्मों तक भटकता रहेगा।
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