________________
होते मूढ नर कामपरायण
शव - यौनवृत्ति, कामैषणा - हत्याएँ तथा पशुयौनवृत्ति आदि भी कामकुटेवों के विचित्र विकृत रूपों की पराकाष्ठा है ।
परन्तु यह सब अचेतन मन को प्रशिक्षण देने की विधियाँ न जानने का परिणाम है । व्यक्ति के मन में जब भी कामोत्तेजना होती है, प्रथम तो उसकी भूल से होती है । कामोत्तेजना करने वाले खानपान, रहन-सहन, वातावरण, अश्लील दृश्य प्रेक्षण या अश्लील पठन-श्रवण को अगर व्यक्ति जरा भी प्रोत्साहन न दे, अपने मन को उस ओर लगाये ही नहीं, अपराध का बोध होते ही उसके प्रति गुरुजनों परिवारों - प्रियजनों या समाज द्वारा अथवा स्वयं अपने ही द्वारा उसकी भर्त्सना की जाय, उसे मन में प्रवेश करते ही खदेड़ दिया जाये तो कामवासना को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा और न ही वह अचेतन मन में जाकर जायेगा एवं न वह उत्कट रूप ही ले सकेगा ।
४६
केवल भर्त्सना से या दुराग्रह या हठपूर्वक कामोत्तेजना को या कामकुटेवों से मुक्ति पाना सम्भव नहीं है । ऐसा करने से दमित भावना अचेतन मन में चली जायेगी, जो असामान्य क्रम में होने वाले स्वप्नदोष से लेकर विभिन्न यौन रोगों तथा शारीरिक मानसिक विकृतियों का कारण बनेगी । ऐसा न करके काम का परिष्कार किया जाय, काम शक्ति को अध्यात्म की ओर मोड़ा जाये । अपराध के बोध के साथ ही पश्चात्ताप के साथ अपराध प्रकटीकरण तथा प्रायश्चित्त किया जाए तो अपराधी वृत्ति से मुक्ति का संकल्प प्रबल हो जाने पर अपनी संकल्प शक्ति या इच्छाशक्ति को क्रियान्वित करने की शक्ति पर आस्था हो तो काम का शमन हो सकता है । इच्छाशक्ति की दुर्बलता ही तो कामप्रवृत्ति को आगे बढ़ने देती है । जिसके भयंकर परिणाम व्यक्ति को स्वयं भोगने पड़ते हैं ।
अगर व्यक्ति की नैतिक मान्यताएँ प्रबल संस्कार के रूप में हों तो कामावेगजन्य विकृतियों से बचा जा सकता है। नैतिक मान्यताओं का सीधा सम्बन्ध आध्यात्मिक क्षेत्र से है; वे मात्र नियन्त्रक ही नहीं, प्रेरक या निर्देशक भी हैं। उनके बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में सार्थक क्रियाशीलता सम्भव न हो सकेगी । अतः आवश्यकता काम के दमन की नहीं, शमन की है, बहिष्कार की नहीं, परिष्कार की है, रूपातर की है, उसकी दिशा मोड़ने की है । इच्छाशक्ति या कामशक्ति को विविध सत्कार्यों विश्वमंत्री, जनसेवा आदि धर्माचरणों में लगा दिया जाये तो प्रबल पुरुषार्थ हो सकता है । कामभावना को धर्मदिशा में परिष्कृत किया जा सके तो वह न तो विनाशकारी बनेगी और न अनैतिक ही। उसे जीवन को आनन्दित एवं उत्कृष्ट बनाने में बुद्धितापूर्वक मोड़ा जाये तो वह हर दृष्टि से लाभप्रद सिद्ध होगी ।
काम के प्रवाह में बह जाने पर सर्वनाश
काम का प्रबल वेग जब आता है, अगर मनुष्य तब उसके प्रवाह में बह जाता है तो उसका फिर शतमुखी पतन होना प्रारम्भ हो जाता है ।
इसलिए जो व्यक्ति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org