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________________ ४८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ मृत्यु निकट आने पर शोक करता है, झूरता है, प्रलाप करता है, बाह्य और आन्तरिक संताप से संतृप्त हो जाता है। उसे घोर वेदना और मानसिक खेद सहना पड़ता है। यही हाल ययाति राजा का हुआ । अन्त में, जब एकदम अशक्त और जर्जर हो गया, तब उसे बोध हुआ कि "ना जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवम॑व भूय एवाभिवर्तते ॥" - कामों के उपभोग से कभी काम शान्त नहीं होता। आग में घी डालने पर वह शान्त होने के बदले और अधिक भड़कती है। कामासक्ति से मनुष्य वासना में अन्धा होकर बहक जाता है। वासनाओं की प्रबलता से मनुष्य की अन्तष्टि मलिन हो जाती है, तब वह विवेकहीन और पतनोन्मुख होकर अन्धे का-सा आचरण करने लगता है। अतः यह कहना यथार्थ नहीं है कि कामप्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह काम की कुटेवों का पपोलने-पोसने और बराबर बढ़ाने का परिणाम है। अत्यधिक कामप्रवृत्ति की ओर पहले से ही मन को न जाने दिया जाए, पहले से ही उस कामप्रवृत्ति को धर्माचरण, जनसेवा, आत्मीयता, विश्वमैत्री आदि में परिवर्तित कर दिया जाये तो न तो कामवृत्ति मन में रहेगी और न ही वह बढ़ेगी। अतः काम की प्रचण्डता को देखकर काम को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति मान लेना, एक हस्यास्पद भ्रान्ति है। यह मन की प्रचण्डता का और मन द्वारा प्रेरित कामाभ्यास का परिणाम है। जैसे पागलपन को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति या वृत्ति मान लेना भ्रान्ति है, उसी प्रकार कामवासना को भी मूल प्रवृत्ति या वृत्ति मान लेना भ्रान्ति है । काम-वासना का दमन नहीं, शमन हो कई लोग यह कहा करते हैं कि कामवासना का दमन अनेक शारीरिक एवं मानसिक रोगों को जन्म देता है, कामोत्तेजना को दबाने से स्नायविक तनाव हो जाता है। यह किसी हद तक सत्य है कि जब एक ओर कामक्रीड़ा के प्रति व्यक्ति के मन में प्रबल पाप भावना घर कर लेती है, दूसरी ओर परिवार, समाज आदि के भय के कारण कामवासना दमित की जाती है: अचेतन मन में उसकी आग धधकती रहती है, जो आगे चलकर काम-कुटेवों या शारीरिक मानसिक विकृतियों, अथवा अप्राकृतिक मैथुन चेष्टाओं के रूप में फूटती हैं। काम कुटेवों का प्रारम्भिक परिणाम स्वप्नदोष, उपन्यासादि अश्लील साहित्य वाचन, हस्तमैथुन, अप्राकृतिक मैथुन में आता है। फिर तीव्र कामाभिलाषा उत्पन्न होती है और काम-पीड़ित व्यक्ति सामान्य विधि एवं पात्र को छोड़कर किसी अस्वाभाविक विधि या अनुपयुक्त पात्र द्वारा यौनेच्छा की संतुष्टि करता है। परपीड़क काम क्रीड़ाएँ, काम-मूलक आत्मप्रपीड़न, प्रदर्शन-स्पर्शविचित्र वेष धारण या विवस्त्रप्रियता, इतरेतर वस्त्रप्रियता, अत्यन्त घृणित एवं बीभत्सरूपों में विचित्र कामचेष्टाएँ करना, आदि कामकुटेवों के उत्कट रूप हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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