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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ८ विवेकी होता है वह काम के प्रवाह में फिसलने का प्रसंग आते ही एकदम सावधान हो जाता है, परन्तु मूढ़नर इस बात को दीर्घदृष्टि से न सोच कर परिणामों का विचार किये बिना ही काम में अन्धा होकर कूद पड़ता है।' उफनती नदी के समान ही कामवासना का आवेग अत्यन्त तीव्र होता है । उस समय मूढ़ पुरुष का विवेक लुप्त हो जाता है, वह कुछ भी भला-बुरा न सोचकर आँख होते हुए भी अन्धा बन जाता है और कामवासना की आग में कूद पड़ता है । ५० महर्षि विश्वामित्र बहुत बड़े तपस्वी थे । उनका प्रभाव बहुत बढ़ा चढ़ा था । साधना भी उन्होंने काफी वर्षों से की थी । परन्तु एक क्षण की भूल उनके जीवन के लिए भयंकर पतन का कारण बन गयी । मेनका का सुन्दर रूप देखकर वे मोहित हो गये, अपने क्षणिक कामावेश को वे न रोक सके । फलतः उन्हें वर्षों की साधना के फल से वंचित होना पड़ा। कामवासना का प्रबल आवेग मेनका-जैसे अनेक सुन्दर रूप बनाकर आते है । चतुरजन उसे दूर से ही नमस्कार कर लेते हैं, परन्तु अदूरदर्शीय मोहमोहित जन बिना विचारे ही उसे प्रश्रय दे देते हैं, उसके प्रवाह में बह जाते हैं । काम अपने-आप में पतन का कारण नहीं है, किन्तु जब मनुष्य किसी स्त्री के रूप आदि में मोहित होकर संकल्प विकल्प करता है, तभी उसका पतन होता है । दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट कहा है " जइ तं काहिति भावं जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धोव हडो अट्ठि - अप्पा भविस्ससि ।। " " हे साधक ! तू जिन-जिन स्त्रियों को देखेगा, उन-उनके प्रति अगर तू कामभाव ही करता रहेगा तो हवा के झोंके से डोलते हुए हड वनस्पति के पौधे की तरह अस्थिरात्मा हो जायेगा । " काम के प्रवाह में बहने वाला सर्वप्रथम मन है । मन के पीछे इन्द्रियाँ चलती हैं। अगर मन से संकल्प न किया जाय तो कामवासना उत्पन्न होने या बढ़ने का कोई कारण नहीं है । एक साधक ने काम के स्वरूप को समझ कर उससे बचने का उपाया बताया है । काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । न ते संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि || " हे काम ! मैं तेरा स्वरूप जानता हूँ । तुम मन के संकल्प से उत्पन्न होते हो । मैं तुम्हारा संकल्प ही नहीं करूँगा, जिससे तुम मुझमें उत्पन्न नहीं होओगे । जब मनुष्य मन में कामवासना का संकल्प करता है, तब वह उसके प्रवाह में सहसा बह जाता है । लगभग पचास वर्ष पहले की बात है । उस समय बोलता सिनेमा नहीं था । पारसी थियेट्रीकल कंपनियाँ थीं । वे नगर-नगर में जाकर तमाशा दिखाती थीं । एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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