SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ "अगर विषयभोगों में अधिक सुख होता तो पशु मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सुखी होते, किन्तु मनुष्य का आनन्द आत्मा में निहित है, मांस (शरीर ) में नहीं ।" इसलिए विषयभोगों का, कामवासना का जितना - जितना सेवन किया जायगा, सुख उतना ही उतना जीवन से दूर होता चला जायगा । अमेरिका आज सबसे अधिक धनाढ्य देश माना जाता है । वहाँ के निवासियों के पास एक से एक बढ़कर इन्द्रिय विषयों के उपभोग की सामग्री है और वे उन विषयों का खुलकर उपभोग करते हैं । परन्तु उन्हें क्षणिक सुख के सिवाय अधिकतर दुःख ही दुःख मिलता है । वे विषयों का उपभोग करते-करते ऊब गये हैं, बेचैन हैं, अशान्त हैं । आज दुनिया भर में सबसे अधिक मानसिक रोगी हैं तो अमेरीका में हैं । क्या कारण है, उनके दुःख का ? अगर विषयभोग की आसक्ति या कामतृप्ति सुख का कारण होता तो अमेरीका के लोग सुख की खोज में भारत जैसे देशों में न भटकते, न भारतीय योगियों से वे सुख-शान्ति का मार्ग पूछते ! इसीलिए तो शास्त्र में कहा गया है— " बालाभिरामेसु दुहावहेसु, न तं सुहं कामगुणेसु राया !" “हे राजन् ! काम-भोग या इन्द्रियविषयोपभोग मूढ़ (अज्ञानी) जनों को रमणीय लगते हैं, परन्तु वे अनेक दुःखों के लाने वाले हैं, इसलिए विवेकी एवं आत्मिक सुखाभिलाषी जन इन कामभोगों में सुख नहीं देखते । " सचमुच कामभोग प्राणियों के लिए रोग के कारण हैं । जो व्यक्ति क्षणमात्र के लिए सुखद, किन्तु चिरकाल तक दुःख देने वाले कामभोगों को अपनाता है । वह जानबूझ कर अपने बहुमूल्य जीवन को दुःख के गड्डे में डालता है । इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है "Worldly and sensual pleasues for the most part, are short false, and decitful; like drunkenness, they revenge the jollymad ness of one hour with the sad repentance of many." 'सांसारिक और इन्द्रियविषयों के आनन्द प्राय: क्षणिक, झूठे और धोखे से भरे होते हैं । वे नशीली चीजों से होने वाले नशे के समान अनेक पश्चात्तापों को साथ लिये हुए एक घण्टा तक पागलपन की खुशी देते हैं ।' सिर्फ ऐसे कामभोगों में सुख मानकर जो व्यक्ति रात-दिन इनके पीछे भागता रहता है, वही शास्त्रीय भाषा में मूढ़ है । उन्हीं के लिए कहा गया है— "मूढ़ा नरा कामपरा हवंति ।" काम क्या है ? क्या नहीं ? प्रश्न होता है कि काम क्या है ? क्या वह मानव जीवन के लिए स्वाभाविक नहीं है ? शास्त्रकार प्रत्येक शब्द का तौल - तौलकर प्रयोग करते हैं । जौहरी के कांटे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy