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________________ ३६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ कनक सोने को भी कहते हैं और कनक धत्तूरे को भी। दोनों में अन्तरं यही है कि धत्तूरे से सोने में सौ गुनी मादकता अधिक हो जाती है । धत्तूरे को तो खाने पर मनुष्य नशे में पागल बनता है, जबकि सोना प्राप्त होते ही उसके मद में मनुष्य बावला बन जाता है। क्या आपने लखपति घर में ब्याही हुई उस लड़की की कहानी सुनी, जो अपने भाई के गरीब हो जाने पर जब वह अपनी लखपति बहन से मिलने गया तो उसने फटे हाल समझ कर पहचानने से भी इन्कार कर दिया था। परन्तु जब वह पुनः व्यापार करके स्वयं लखपति सेठ बनकर अच्छे वस्त्राभूषण पहन कर बहन से मिलने गया था तो उसने खूब आवभगत की थी। भाई उस स्वादिष्ट भोजन को प्रारम्भ करने से पहले वस्त्राभूषणों को खिलाने लगा। बहन के द्वारा कारण पूछने पर उसने बताया कि तुम तो इन गहनों को पहचानती हो, भाई को नहीं।" आखिर बहन ने भाई से क्षमा मांगी तब उसने भोजन किया। तुलसीदास का यह कथन कितना सत्य है दौलत से दौलत मिले कर-कर लांबा हाथ । तुलसीदास गरीब की कोउ न पूछे बात ॥ अर्थपरायण लोभी : कर्तव्यभ्रष्ट प्रायः यह देखा जाता है कि मनुष्यों में अर्थपरायणता के कारण कर्तव्यभ्रष्टता आ जाती है। रिश्वत लेकर जैसे मनुष्य सरकार के प्रति कर्तव्य परायण नहीं रहता, वैसे ही सम्पत्ति के लोभ से मनुष्य अपने स्वामी के प्रति वफादार नहीं रहता । वह धन का लोभ मिलते ही आँखें बदल देता है। अवन्तीपति चण्डप्रद्योत की इच्छा के विरुद्ध वत्सराज उदयन राजकुमारी वासवदत्ता को एक हाथी पर बिठाकर भाग निकले। प्रद्योत के सैनिकों ने उनका पीछा किया। उदयन ने शस्त्रास्त्र से नहीं, धन से उनका सामना किया। उन्होंने थैला भरकर• स्वर्णमुद्राएँ समीप आए सैनिकों पर बरसा दीं। सारे सैनिक कर्तव्य को भूल कर स्वर्णमुद्राएँ बटोरने लग गये । तब तक उदयम को काफी अधिक दूरी पार करने का मौका मिल गया । सैनिक दुबारा निकट पहुँचे तो उसी प्रकार मुद्रावर्षण का प्रयोग दुहरा दिया। इस प्रकार उदयन अवन्ती की सीमा पार कर गए । धन के लोभी कर्तव्यभ्रष्ट सैनिक उदयन को नहीं पकड़ सके । इसीलिए कहा गया है दौलत की दो लात हैं, 'तुलसी' निश्चय कीन्ह । आवत-अन्धा करत है, जावत करे अधीन ॥ लोभी धन-परायण क्यों होते हैं ? अर्थलोभ से इतने अधिक नुकसान होते हुए भी मनुष्य लोभ के वशीभूत होकर क्यों धन के पीछे बेतहाशा भागता है ? उसे धन-संग्रह करने में केवल अपना स्वार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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