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लोभी होते अर्थपरायण
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सिद्ध करने में कौन-सा लाभ है ? क्या सुख है ? कौन-सा पेट भर जाता है ? वर्तमान युग का यह एक ज्वलन्त प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें अनुभवी आँखों से ढूंढना चाहिए ।
अर्थ के पीछे भाग-दौड़ करने वालों का कहना है कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति आदर-सम्मान के साथ जीना चाहता है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा हो, सभी उसकी वाहवाही करें, उसे उच्च आसन दें, इसप्रकार की प्रबल इच्छा मनुष्य में रहती है । और इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए अधिकाधिक धन प्राप्ति एक प्रबल साधन है । जिसके पास धन होता है, वह धन से जीवन-यापन की सभी सामग्री, सुख-सुविधाएँ खरीद सकता है, दूसरों को पैसे देकर काम करा सकता है, सभा संस्थाओं में पैसा देकर नाम कमा सकता है । पैसा होने पर मनुष्य को सब जगह आदर मिलता है । संसार में सर्वत्र पैसे की पूछ है । वह यही सोचता रहता है कि 'सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति' – सभी गुण स्वर्ण-धन के आश्रय में रहते हैं । ये ऊँचे-ऊँचे भवन, अट्टालिकाएँ, बगीचा, कोठी, मिल, कारखाने, कार आदि सब साधन धन से प्राप्त हो सकते हैं । हीरे का हार, मणियों के आभूषण और सोने के गहने सब पैसे के खेल हैं । फिर पैसे से पैसा बढ़ता है । पैसे से नौकर-चाकर आदि रखकर मनुष्य सुखोपभोग कर सकता है । ये और ऐसे ही कुछ कारण हैं, जिससे अर्थ लोभ से प्रेरित होकर मनुष्य अधिकाधिक धनोपार्जन एवं धनसंग्रह में लगा रहता है ।
वास्तव में देखा जाए तो अर्थ के आधार पर जो मनुष्य की उच्चता और महत्ता का मूल्यांकन किया जाता है, वह बिलकुल गलत है । भारतवर्ष त्याग का पुजारी रहा है, वह गुणों का पूजक और प्रशंसक रहा है । यहाँ किसी को आदरसत्कार उसके त्याग, विनय, सेवा, विद्या, विवेक, सदाचार आदि गुणों पर से दिया जाता था, न कि केवल धन का ढेर देखकर । धन तो वेश्या, कसाई, चोर, डाकू आदि के पास भी बहुत होता है, परन्तु समाज में उनका जीवन उच्च, उत्कृष्ट एवं प्रशंसनीय नहीं माना जाता । केवल धन के गज से मनुष्य की उच्चता एवं महत्ता को नाना गलत है । इसी गलत पैमाने के कारण समाज में अनेक अनर्थ पनप रहे हैं । येन केन प्रकार धन बटोरने के लिए अनेक हथकंडे किए जाते हैं । यही समाज और राष्ट्र के अधःपतन का कारण है ।
अर्थ - परायणता या धनलिप्सा के कारण जहाँ व्यक्ति रात-दिन आर्त- रौद्र ध्यान से घिरा रहता हो, वहाँ धर्मरुचि या धर्मध्यान कहाँ रह सकता है ? जहाँ धर्म नहीं, वहाँ कोरे धन से सुख-शान्ति कैसे हो सकती है ? यही कारण है कि नीति, न्याय और धर्म के विवेक को तिलांजलि देकर जहाँ धन कमाया जाता है, वहाँ कलह, क्लेश, वैर, ईर्ष्या, छीना-झपटी, चिन्ता आदि अनेक दुःख धन के साथ ही साथ लग जाते हैं और धन कोई स्थायी रहने वाला नहीं है । यह सभी शास्त्र और अनुभव एक स्वर से पुकार कर कहते हैं । फिर अधिक धन बटोर कर धन के पीछे नींद हराम करने से क्या लाभ है ? क्या सुख है, जिस धन के पीछे अनेक अनर्थ और पाप लगे
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