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________________ लोभी होते अर्थपरायण ३१ जीवन की सभी विशेषताएँ लोभ के सफर में जाकर समाप्त हो जाती हैं। धर्म, पुण्य सभी को लोभ खा जाता है । इसलिए भगवद्गीता में लोभ को नरक के तीन द्वारों में से एक द्वार बताया है। .. ई. सन् १६५७ में जब बादशाह शाहजहाँ बीमार हुआ तो दारा, औरंगजेब, मुराद और शुजा, इन चारों में से गद्दी का वास्तविक अधिकारी दारा था। परन्तु औरंगजेब के मन में राज्यसत्ता का तीव्र लोभ पैदा हुआ। पिता की गद्दी का अधिकार पाने वाला मेरे अतिरिक्त कोई न रहे; इतना ही नहीं, राज्य का हिस्सेदार भी कोई न बच पाए, इस प्रकार का कुकृत्य करने का दुःसंकल्प उसके हृदय में जागा। अपने कपट जाल में दूसरों को फँसाने की विद्या में वह निष्णात था ही। अपने भाई मुराद को राज्य के हिस्से का लालच देकर उसे और उसकी सेना को अपनी सहायता के लिए लेकर उज्जैन के पास शुजा के लिए राठौड़ जसवंतसिंह के साथ प्रथम लड़ाई की और दूसरी लड़ाई बंगाल में शुजा के साथ करके उसे ठिकाने लगा दिया। तत्पश्चात् राज्य के वास्तविक अधिकारी दारा को आगरा के किले के चौक में चिनवा कर यमलोक पहुँचा दिया। पिता को कैद करके एवं मुराद के साथ दगेबाजी करके की गई प्रतिज्ञा को भंग की और स्वयं स्वतंत्र बादशाह बन बैठा। उसने किसी हकदार या हिस्सेदार को जीवित नहीं रहने दिया। राज्य के लोभ में अन्धा होकर मनुष्य कितना. अनर्थ कर बैठता है, यह इस ज्वलन्त उदाहरण से जाना जा सकता है। सिकन्दर ने आधी दुनिया जीत ली थी, और आधी दुनिया की दौलत भी इकट्ठी कर ली थी। परन्तु फिर भी उसे सन्तोष न था। मरते समय भी उसके मन में यही अभिलाषा थी कि मैं इस दौलत या धरती को परलोक में अपने साथ ले जाऊँ। परन्तु वह कुछ भी साथ न ले जा सका। इसीलिए किसी शायर ने कहा है "मुहया अगरचे मकां और माली थे। सिकन्दर जब गया (तब) दोनों हाथ खाली थे। ऐसे पदार्थ-लोभी को कुरानशरीफ (१०४/२) में धिक्कार दिया गया है "अल्ल जी जम अ माल डध्व अद्द द हूं." लानत है, उस पर, जो दौलत का ढेर • जुटाता है और जब तब बैठकर उसे गिनता है । वह सोचता है कि उसकी दौलत उसे अमर बना देगी। अर्थ-प्राप्ति की दौड़ मृत्यु का कारण कई बार मनुष्य लोभ से प्रेरित होकर आगे-पीछे की सोचे बिना अर्थ-जमीन, राज्य या धन आदि किसी पदार्थ की प्राप्ति के पीछे दौड़ लगाता है, वह थक जाता है तो लोभ उसे दौड़ाता रहता है। इसीलिए कहा है-'लोहाओ दुहओ भयं' लोभ से इहलोक और परलोक दोनों में भय है। इहलोक के भय तो प्रत्यक्ष हैं ही। परलोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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