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आनन्द प्रवचन : भाग ८
. संसार में कई ऐसे सत्पुरुष होते हैं, जो अपने स्वार्थों का त्याग करके केवल परार्थ में उद्यम करते हैं, बहुत से ऐसे सामान्यजन होते हैं, जो अपना स्वार्थ साधने के साथ-साथ परार्थ के लिए उद्यत होते हैं। परन्तु वे मनुष्य की आकृति में राक्षस हैं, जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरों का हित नष्ट कर देते हैं और जो बिना ही किसी प्रयोजन के दूसरों का हित नष्ट कर देते हैं। वे कौन हैं, यह हम नहीं जानते ? उन्हें किस नाम से पुकारा जाए?
___इन चार कोटि के व्यक्तियों में प्रारम्भ के दो ठीक हैं, वे न तो अतिस्वार्थी हैं, न लोभ-प्रेरित हैं । किन्तु तीसरी कोटि के व्यक्ति तो नर राक्षस हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए दुनिया में खुराफात मचाते हैं, और चौथे तो परमस्वार्थी राक्षस शिरोमणि हैं । ऐसे व्यक्तियों के लिए ही कहा गया है-'लुद्धा नरा अत्थपरा हवंति।' लोभी मनुष्य की तीसरी वृत्ति : पदार्थ-परायणता
लोभी मनुप्य के जीवन की तीसरी मनोवृत्ति है-पदार्थ परायणता । इसको मानस में सदा यही चिन्तन फलता रहता है, किस प्रकार अमुक पदार्थों का संग्रह करूं ? कैसे अमुक वस्तु जुटाऊँ ? इसका यही जप और यही काम चौबीसों घण्टे चलता रहता है । पाश्चात्य लेखक South (साउथ) लिखता है
"The Covetous person lives as if the world were made altogether for him and not he for the world; to take in everything and part for nothing."
लोभी व्यक्ति इस प्रकार जीता है, मानो सारा संसार या संसार के सभी पदार्थ उसके लिए बने हैं, परन्तु वह संसार के लिए नहीं पैदा हुआ अर्थात् वह संसार से प्रत्येक चीज लेने के लिए है, देने के लिए कुछ नहीं।"
जो वृत्ति इस प्रकार मनोज्ञ सांसारिक पदार्थों के बटोरने की हो जाती है, वह रातदिन यही सोचता है कि सारे उत्तम पदार्थ मेरे पास हों, मेरी तिजोरी में संसार का सारा धन आ जाए, मैं ही सब रत्नों का रक्षक और उपभोक्ता बनूं । दुर्योधन एवं कंस आदि का यही सूत्र था-'जं रयणं तं अह्मकेरं। संसार में जो भी रत्न-श्रेष्ठ पदार्थ है, वह हमारा है । उस पर हमारा अधिकार होना चाहिए। कोणिक के पास सम्पत्ति
और श्रेष्ठ वस्तुओं की कोई कमी नहीं थी, फिर भी हल विहल्ल कुमार के पास के श्रेष्ठ हार और हाथी लेने के लिए वह ललचा उठा। इन दोनों सांसारिक पदार्थों को अपने कब्जे में करने के लिए उसने अपने नाना चेटक महाराज के साथ महायुद्ध छेड़ दिया। क्या जरूरत थी, इतनी बड़ी लड़ाई छेड़ने की ? परन्तु लोभ का कीड़ा कोणिक के दिमाग में बुरी तरह कुलबुला रहा था। इसलिए दूसरे के स्वामित्व का हार और हाथी अपने कब्जे में करने के लिए उसने युद्ध में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का संहार करवाया । बलिहारी है, लोभवृत्ति की ! इसलिए तो कहा गया है-लोभो सव्व विणासणों' लोभ सर्वविनाशक है । लोभ मनुष्य के सभी सदगुणों का नाश कर देता है
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