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________________ लोभी होते अर्थपरायण २७ हैं, उनके मूल में भी प्रायः यही लोभवृत्ति काम करती है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं ___ "करेइ लोहं, वेरं वड्ढइ अप्पणो।" जो धन का लोभ करते हैं; वे आपस में एक दूसरे से बैर बढ़ाते हैं। लोभी मनुष्य में अत्यधिक-स्वार्थ-परायणता लोभी मनुष्य की दूसरी मनोवृत्ति होती है-स्वार्थपरायणता। वह अपने ही स्वार्थ में बन्द हो जाता है । लोभ की बीमारी, ऐसी पाजी बीमारी है कि मनुष्य उसमें अपने में सिमटना शुरू हो जाता है। इससे वह गिरता चला जाता है। क्षुद्र स्वार्थ के संकीर्ण घेरे में बन्द होकर वह बात-बात में नीचता पर उतर आता है। वह स्वार्थ के बिना बात ही नहीं करता। जहां अपना स्वार्थ साधना होगा, वहाँ उसकी रुचि होगी । क्योंकि उसे तो लोभ का ज्वर चढ़ा रहता है। इसीलिए एक नीतिकार ने कहा है "भक्ते द्वषो, जड़े प्रीतिः प्रवृत्तिर्गरुलंघने । मुखे कटुकता नित्यं धनिनां ज्वरिणामिव ॥" स्वार्थपरायण अतिलोभी मानव में भक्त के प्रति द्वष, जड़ में प्रेम, गुरुजनों (की आज्ञा) का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति और मुख में (वाणी की) कटुता ज्वरग्रस्त पुरुषों की तरह धनिकों में भी ये चीजें प्रायः होती हैं। ज्वरग्रस्त को भक्त यानी भोजन में अरुचि होती है, वैसे ही स्वार्थी धन. लोभी को भी भक्ति करने वाले के प्रति द्वष या अरुचि होती है, बुखार वाले को पानी की प्यास बहुत लगती है, इसलिए जल में प्रीति होती है, लोभी की जड़ धन में प्रीति होती है, चेतन धन को वह पूछता भी नहीं। बुखार वाला गुरु या गरिष्ठ भोजन का लंघन करने में प्रवृत्त होता है, जबकि लोभी गुरुजनों की बात का उल्लंघन करता रहता है । बुखार वाले का मुंह कड़वा हो जाता है, लोभी का मुंह भी वचन की कटुता के कारण कड़वा रहता है । इसलिए लोभी स्वार्थपरायण मानवों और ज्वरग्रस्त लोगों की एक-सी दशा है । स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुःखदायी जीवन है। इसका परिणाम नरक की-सी परिस्थितियाँ पैदा कर देता है। क्या घर में, क्या बाहर में; संघर्ष, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, लालसा आदि दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता है। स्वार्थपरता के कारण ही मनुष्य चोर, बेईमान, ठग और धूर्त बनता है। स्वार्थपरायण व्यक्ति केवल अपनी ही बात सोचता है। दुनिया चाहे मरे या जीए, उसका अपना स्वार्थ सधना चाहिए, यही उसकी वृत्ति रहती है। तथागत बुद्ध की अवन्ती में विशाल सभा विसर्जित हो गई थी । थोड़े-से बौद्ध भिक्षु और श्रेष्ठी सामन्तजन शेष रह गए थे। इनमें प्रायः विचारक लोग थे और सभी अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान तथागत से करा रहे थे। तभी वहाँ पास में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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