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________________ २६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ विग्रह का कारण : लोभवृत्ति एक अंग्रेज विचारक Cowley (कूले) ने लोभवृत्ति से प्राप्त किये जाने वाले धन को सभी प्रकार के कलह, संघर्ष और फूट का कारण बताया है— "Gold begets in bruthren hate. Gold in families debate. Gold does friendship separate. Gold does civil war create." "धन ( लोभ प्राप्त) भाइयों के हृदय में घृणा पैदा करता है; धन परिवारों धन मित्रों को अलग-अलग कर देता है, में विवाद और विग्रह उत्पन्न कर देता है; और गृहयुद्धों का जनक भी धन ही है ।" " । दो भाई पिता के देहान्त होते ही सम्पत्ति का बँटवारा करने लगे । एक - खेत की सीमा पर एक सुपारी का पेड़ था, इस पर दोनों भाइयों में विवाद खड़ा हो गया । छोटा भाई कहता था - यह मेरे खेत की सीमा में है, इसलिए मेरे हक का है, बड़ा भाई उसे अपने हक में बताता था इसी संघर्ष में दोनों भाइयों ने एकदूसरे पर अदालत में मुकद्दमा दायर किया। कई वर्षों तक दोनों मुकद्दमा लड़ते रहे, दोनों पक्ष के हजारों रुपये खर्च हो गये । आखिर एक न्यायाधीश ने उस जगह का मुआयना किया तो उसे देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ सुपारी के पेड़ के लिए दो भाई मूर्खतावश आपस में बैर - विरोध पर उतर आये और हजारों रुपये फूंक दिये । उसने अपने आदमियों को कह कर वह पेड़ उखड़वा कर नदी में फिंकवा दिया । न्यायाधीश ने उन दोनों भाइयों से कहा- तुम दोनों का फैसला हो गया है, बोलो अब क्या चाहते हो ?" दोनों भाई शर्मिंदा हो गये और एक दूसरे से माँफी माँगी । कि सिर्फ एक तुच्छ धन के लोभी मामूली-सी बात पर लड़ने-मरने और मुकद्दमेबाजी करने को तैयार हो जाते हैं, भले ही उसमें उनका अधिक खर्च हो जाय । अतः गृहयुद्ध हो या दो देशों का युद्ध अथवा विश्वयुद्ध हो, सभी के मूल में धन की आसक्ति रहती है । विएतनाम में अमेरीका ने भीषण नरसंहार किया था, उसका मूल कारण क्या था ? सिर्फ यही अर्थलोभ था कि विएतनाम उसका उपनिवेश बना रहे और वह वहाँ की सम्पत्ति का शोषण करता रहे। ब्रिटिश सरकार ने भी इसी आर्थिक शोषण के लिए भारत को वर्षों तक अपना उपनिवेश बनाये रखने हेतु भीषण दमनचक्र चलाया । आज भी विश्व में जो अशान्ति की घटाएँ उमड़ती हुई उनके मूल में वही अर्थलिप्सा है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर, एक सम्प्रदाय दूसरे समाज और सम्प्रदाय पर जो आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं, Jain Education International दिखाई पड़ती हैं, समाज और संघर्ष करते For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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