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अप्रमाद : हितैषी मित्र | ३८७
कई व्यक्ति किसी आवश्यक कार्य को आगे पर टालते रहते हैं । आज-कल, परसों करते-करते बरसों बीत जाते हैं, वह कार्य फिर ऐसा खटाई में पड़ जाता है कि होता ही नहीं, एक बार एक काम में टालमटूल की आदत पड़ जाती है, तो फिर वह हर काम में टालमटूल करता है । यों एक दिन जिंदगी पूरी हो जाती है और जीवन के सुनहरे अवसर चले जाते हैं, अन्त में व्यक्ति हाथ मलता रह जाता है । यह प्रमाद इतना भयंकर है कि अन्त में व्यक्ति को सिवाय निराशा और दुःख के और कुछ पल्ले नहीं पड़ता ।
एक बुढ़िया के पास सर्दी में ओढ़ने को कुछ न था । सोचने लगी – 'कपड़ा और रूई पड़ी है, कल सुबह उठकर गुदड़ी बना लूंगी।' सुबह हुआ तो उसने सोचा"अभी क्या जल्दी है, शाम को बना लूंगी। शाम आई, अन्धेरा होने लगा, सोचा- अब अंधेरे में तो कुछ बनेगा नहीं, अब तो कल ही बनाऊंगी।" रात हुई, बुढ़िया को खूब जाड़ा लगा । सोचा - सुबह उदूंगी और जरूर गुदड़ी बना लूंगी। किन्तु सुबह हुआ, शाम हुई, रात पड़ी; एक के बाद एक दिन बीतने लगे, पर बुढ़िया की गुदड़ी नहीं बनी । यों करते-करते सर्दी की मौसम निकल गई । सोचने लगी- "अब गुदड़ी की क्या जरूरत है ? अब तो गर्मी की मौसम आई । अब तो अगली सर्दी की मौसम में बना - ऊंगी । इस तरह करते-करते चार शीत ऋतु आईं और चली गईं, लेकिन बुढ़िया की गुदड़ी नहीं बनी, सो नहीं बनी। उसकी उम्र भी यों गई। इसी प्रकार आगे पर टालने वाले साधक मनोरथ जाती है, बुढ़ापा घेर लेता है, कई रोग आकर डेरा जमा शिथिल हो जाते हैं, कुछ करने-धरने लायक नहीं रहते
मनसूबे करते-करते खत्म हो
।
इस तरह प्रमाद करने का
नतीजा यह होता है कि व्यक्ति बिना ही धर्म साधना किये खाली हाथ चला जाता है । कार्लाइल के शब्दों में
करते रह जाते लेते हैं, फिर
"आलस्य में स्थायी निराशा है ।"
"In idleness there is Perpetual despir.
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प्रमाद : निष्क्रियतापूर्वक का कालयापन
बहुत से लोग निष्क्रियतापूर्वक अपना समय बिताते रहते हैं । निठल्ले और निकम्मे रहने की आदत व्यावहारिक जीवन में जैसे खराब है, वैसे ही आध्यात्मिक जीवन के लिए भी बुरी है । जो व्यक्ति आध्यात्मिक साधना-ज्ञान-दर्शन- चारित्र की आराधना करने का उत्तम अवसर मिलने पर भी उससे कुछ लाभ नहीं उठाता और निष्क्रिय बना रहता है; उसे अन्त में पश्चात्ताप के सिवाय और कुछ नहीं मिलता ।
पाश्चात्य विचारक टायरन एडवर्डस ( Tyron Edwards ) के शब्दों में
हैं, उम्र ढल सारे ही अंग
"Indolence is the dry rot of even a good mind and a good Character....It is the waste of what might be a happy and useful
life."
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