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________________ ३८८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ शिथिलता या निष्क्रियता अच्छे मन और अच्छे चरित्र की सूखी सड़ान है;... जो सुखी और उपयोगी जीवन बन सकता था, उसकी यह बर्बादी या व्यर्थता है।। विषयासक्ति : एक प्रमाद पांचों इन्द्रियों के विषयों को कोई भी साधक रोक नहीं सकता, विषय आते हैं, उनका स्पर्श साधक को होता है, लेकिन जब साधक विषयों के प्रति राग और द्वेष करता है, इष्ट विषय के प्रति आसक्ति रखता है, यह विकार है, यह प्रमाद है; इस प्रमाद के कारण व्यक्ति महान् कर्मबन्ध कर लेता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने जब अपने सम्बन्ध में अनिष्ट शब्द सुने तो प्रमाद वश मन ही मन उत्तेजित हो उठे और उसकी प्रतिक्रिया क्रोध और द्वेष के रूप में भयंकर हुई। इस भयंकर प्रमाद के कारण एक बार तो उन्होंने सातवीं नरक में जाने तक के बन्ध की सम्भावना प्रबल हो उठी थी, परन्तु वे एकदम संभले । उनके मन में एक जागृति की प्रचण्ड लहर आई, उन्होंने उन समस्त कर्मों का कुछ ही समय में क्षय कर डाला। ___इस प्रमाद से साधक को प्रतिक्षण सावधान रहना है । आप कहीं जा रहे हों और रेलगाड़ी में बैठे हो उस समय आपको जेबकटों से बहुत सावधान रहना पड़ता है, क्योंकि वे आपकी जेब इस सिफ्त से काटकर आपका धन हरण कर सकते हैं। इसी प्रकार आपके जीवन में सद्गुणों का धन लूटने वाले ये विविध प्रमाद रूपी जेबकटे हैं, इनसे आपको विशेष सावधान रहना है। अगर आप जागृत नहीं रहेंगे तो ये जेबकटे आपके तप, संयम, ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप धन को हरण करते देर नहीं लगाएँगे । उस भौतिक धन के नष्ट होने से इतनी हानि नहीं, जितनी आध्यात्मिक धन के नष्ट होने से हानि है । भौतिक धन के नष्ट होने से तो एक जन्म में ही अमुक समय तक तकलीफ उठानी पड़ती है, किन्तु आध्यात्मिक धन नष्ट होने पर तो जन्म-जन्मान्तर तक कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रमाद हमारे आध्यात्मिक धन का हरण करते देर नहीं लगाता । विषय इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के सामने आते हैं, अगर साधक प्रमाद में पड़ कर राग (आसक्ति) और द्वेष (क्रोध, घृणा आदि) करने लग जाता है तो उसकी साधना, जो अब तक हुई थी, वह चौपट हो जाती है। इसलिए इस प्रमादशत्रु से बचकर चलना चाहिए । इसीलिए कहा गया है--'धीरो मुहुत्तमपि नो पमाए' धीर पुरुष को मुहुर्तमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। निद्रा : प्रमाद का एक प्रकार निद्रा भी प्रमाद का एक प्रकार है। परन्तु शरीरधारी के लिए सहज स्वाभाविक रूप से जो अत्यन्त आवश्यक निद्रा है, उसे टाला नहीं जा सकता, फिर भी निद्रा के साथ विवेक अवश्य होना चाहिए, अन्यथा व्यक्ति निद्रा के चक्कर में पड़ कर अपनी बहुमूल्य साधना, परमात्म-भक्ति और श्रद्धा को खो बैठता है । महात्मा गाँधीजी के जीवन की एक घटना है। दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान एक दिन सभाओं और विचारगोष्ठियों का कुछ ऐसा तांता लगा रहा कि उन्हें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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