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________________ ३८६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ पाश्चात्य विचारक जिम्मरमेन ( Jimmermann ) कहते, हैंSloth is tarpidity of the mental faculties. " आलस्य मानसिक शक्तियों की सुषुप्त है ।" आलस्य से बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक सभी सामर्थ्य धीरे-धीरे क्षीण हो जाते हैं । कई व्यक्ति किसी धर्म कार्य या साधना को नियमित नहीं करते, वे एक दिन करते हैं, फिर दस दिन तक उस साधना को ताक में रख देते हैं, यह उपेक्षा वृत्ति या लापरवाही बहुत ही बड़ा प्रमाद है । इससे मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियां कुण्ठित हो जाती हैं । उनमें जंग लग जाता है । एक गुरुजी प्रतिदिन अपने शिष्य को कहते थे - " वत्स ! प्रतिदिन ध्यान किया करो, पूजा-प्रार्थना भी नियमित किया करो । परन्तु शिष्य सोचता था -प्रतिदिन ध्यान या पूजा प्रार्थना की जाए और एक दिन न जायेगा ?” परन्तु गुरुजी उसका प्रमाद दूर करने के लिए प्रतिदिन उसे कहते रहते थे । परन्तु दूसरे दिन जब शिष्य ने ध्यान नहीं किया, तो गुरु ने उससे कहाध्यान नहीं किया, वत्स !" शिष्य ने कहा - "गुरुजी ! रोज-रोज ध्यान आदि क्यों करना चाहिए ?" गुरु उस समय कुछ न बोले । शाम को उन्होंने शिष्य से कहा" बेटा ! आज से एक काम कर । तेरी जो चटाई है उसमें से एक-एक सली रोज निकालता जा ।" शिष्य ने कहा - "ठीक है, गुरुजी ! ऐसा ही किया किया जाये तो क्या गजब हो _____" "कल करूँगा ।" अब रोज शाम को प्रार्थना पूजा, ध्यान आदि कार्यक्रम होते, उसमें वह नहीं आता, किन्तु चटाई में से नित्य एक सली निकाल कर डाल देता था । यों करते-करते चटाई पूरी हो गई, इसलिए गुरु से आकर कहने लगा- " गुरुजी ! मुझे नई चटाई चाहिए। गुरु ने कहा - "बेटा ! पुरानी चटाई ले आ ।" शिष्य बोला“अब तो उसकी सलाइयाँ ही रही हैं, गुरुजी ! " गुरु ने कहा – “अच्छा वे ही ले आ ।" शिष्य ने कमरे में जाकर देखा तो चटाई की ४-५ सलियाँ थीं, उन्हें उठा लाया । बाकी की सलियाँ तो उसने फेंक दी थीं। गुरुजी के सामने डाल दीं। गुरु ने पूछा - "बस कहाँ गयीं ?" मैंने तो उन्हें फेंक दी हैं, गुरुजी !" चेला बोला । गुरुजी- "अच्छा, इनकी फिर से चटाई बना ! " शिष्य – " अब इनकी चटाई कैसे बनेगी ?" बची हुई सलियाँ लाकर उसने इतनी ही सलियाँ हैं, बाकी की गुरु ने उसे समझाते हुए कहा - " जैसे एक-एक करके सभी सलियाँ अलग होने पर उनकी फिर से चटाई नहीं बन सकती, वैसे ही एक-एक सोपान चूकने से धीरे-धीरे सभी चूक जाते हैं । यही बात ध्यान, प्रार्थना आदि धर्माराधना के विषय में प्रमाद करने के बारे में समझ लो । एक दिन धर्माराधना करने से फिर दिन-प्रतिदिन वह क्रम टूटता जायेगा और एक दिन बिलकुल छूट जायेगा, फिर नये सिरे से साधना का अभ्यास करने में बड़ी कठिनाई होगी ।" शिष्य गुरुजी के आशय को समझ गया। वह प्रतिदिन नियमित रूप से धर्माराधना करने लगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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